Book Title: Karmprakruti Author(s): Hiralal Shastri Publisher: Bharatiya GyanpithPage 99
________________ कर्मप्रकृति अथोत्तरप्रकृतीनां जघन्यस्थितिबन्धं गाथाचतुष्टयेनाऽऽह- , लोहस्स सुहुमसत्तरसाणमोघं दुगेकदलमासं । कोहतिए पुरिसस्स य अ य वासा' जहण्णठिदी ॥१३॥ लोभस्य सूक्ष्मसाम्परायबन्धसप्तदशानां प्रकृतीनां च जघन्यस्थितिबन्धः ओघः मूलप्रकृतिवद् भवति । तद्यथा-नवमगुणस्थाने लोभस्य जघन्यस्थितिबन्धोऽन्तर्मुहूर्त्तकालो भवति । सूक्ष्मसाम्पराये ज्ञानावरणपञ्चकं ५ अन्तरायपञ्चकं ५ चक्षुरचक्षुरवधिकंवलदर्शनचतुष्कं ४ एतासां चतुर्दशप्रकृतीनां ५४ अन्तर्महर्तकालो जघन्यस्थितिबन्धो भवति । तथा सूक्ष्मसाम्पराये यशस्कीतरुच्चगोत्रस्य च जघन्यस्थितिबन्धोऽष्टौ मुहर्ता भवति । सात वेदनीयस्य जघन्य स्थितिबन्धो द्वादश १२ मुहूर्ताः। एवं सूक्ष्मसाम्पराये सप्तदशप्रकृतीनां १७ यथासम्भवजघन्यस्थितिबन्धो ज्ञातव्यः । 'कोहतिए दुगेक्कदलमासं' इति क्रोधस्य जवन्यस्थितिबन्धो द्वौ मासौ २ । मानस्य जघन्य स्थितिबन्धः एको मांस: १ । मायाया जघन्यस्थितिबन्धोऽर्धमासः । पुंवेदस्याष्टवर्षाणि ८ जघन्य स्थितिबन्धः ॥१३५॥ तित्थाहाराणंतोकोडाकोडी जहण्णठिदिबंधो । खवगे सग-सगबंधच्छेदणकाले हवे णियमा ॥१३६।।. तीर्थकराऽऽहारकद्वययोरन्तःकोटीकोटिसागरोपमाणि । अयं जघन्यस्थितिबन्धः सर्वोऽपि क्षपकेषु स्व-स्वबन्धब्युच्छित्तिकाले एव नियमाद्भवति ॥१३६॥ भिण्णमुहुत्तो णर-तिरियाऊणं वासदससहस्साणि । सुर-णिरयआउगाणं जहण्णओ होइ ठिदिबंधो" ॥१३७॥ नर-तिर्यगायुषोः जघन्यस्थितिबन्धोऽन्तर्मुहूत्तों भवंति । सुरनारकायुषोः जघन्य स्थितिबन्धो दशसहस्रवर्षाणि भवति ॥१३७॥ अव उत्तरप्रकृतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध बतलाते हैं संज्वलन लोभ कषाय और दशवें सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानमें बँधनेवाली सत्तरह प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध मूलप्रकृतियोंके समान जानना चाहिए । अर्थात् यशःकीर्ति और उच्चगोत्रका आठ-आठ मुहूर्त, सातावेदनीयका बारह मुहूर्त पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण और पाँच अन्तराय इन चौदहका तथा लोभ प्रकतिका जघन्य स्थितिबन्ध एकएक अन्तर्मुहूर्त प्रमाण होता है । क्रोधादि तीनका अर्थात् संज्वलन क्रोध, मान और मायाका क्रमसे दो मास, एक मास और पन्द्रह दिन प्रमाण जघन्य स्थितिबन्ध होता है। पुरुषवेदका जघन्य स्थितिवन्ध आठ वर्ष-प्रमाण होता है ।।१३५।। तीर्थकर और आहारकद्विक इन तीन प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध अन्तः कोड़ाकोड़ी सागर-प्रमाण होता है । यह जघन्य स्थितिबन्ध क्षपक श्रेणीवाले जीवोंके अपनी-अपनी बन्धव्युच्छित्तिके समय में ही नियमसे होता हैं ॥१३६।। मनुष्यायु और तिर्यगायुका जघन्य स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्त है। देवायु और नरकायुका जघन्य स्थितिबन्ध दश हजार वर्षप्रमाण होता है ॥१३७।। १. त वस्सा । २. गो०० १४० । ३.गो० क० १४१ । ४. त जहण्णयं । ५. गो० ०१४२ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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