________________
कमप्रकृति
सुरा, हलि खेड़ो, चित्रक चितेरा, कुलाल कुम्हार, भाण्डागारी भंडारी इन आठोंका जैसा परिणमन है तैसा ही अनुक्रम आठ कर्महुका परिणमन जानना।
भावार्थ:-ज्ञानमावृणोतीति ज्ञानावरणीयम-ज्ञानको जो आच्छादै सो ज्ञानावरणीय कर्म कहिए। तिसका स्वभाव ज्ञान-आच्छादनत्व है । किस दृष्टान्तकरि ? जैसे देवताके मुख ऊपरि वस्त्र डारैते प्रतिमा आच्छादिए है तैसे ज्ञानावरणकर्म ज्ञानगुणको आच्छादै है। दर्शनमावृणोताति दर्शनावरणीयम-जो दर्शनगुणको आच्छादे सो दर्शनावरणीयकर्म कहिए। तिसको प्रकृति दर्शन आच्छादनता । किस दृष्टान्तकरि ? जैसा द्वारि बैठा प्रतीहार राजाके दर्शनको न होन देइ, तैसे दर्शनावरणीयकर्म दर्शनगुणको प्रगट होन नहीं देइ है । वेदयतीति वेदनीयम-जो सुख-दुःखको जणावै सो वेदनीय कहिए। तिसका स्वभाव सुख-दुःख उत्पादक । कैसे ? जैसे शहद लपेटी खाँडेकी धार चाटेते प्रथम ही मिष्ट है अझ पाछै जीभको काटै है, तैसे वेदनीयकर्म जानना। मोहयतीति मोहनीयम-जो जीवको मोहै सो मोहनीय कर्म कहिए। तिसका स्वभाव मोहोत्पादक है। जैसे-मद्य-धत्तूर-मदनकोद्रववत् जैसे मद्य पीए संते अरु धत्तूरा माचन कोदोंके खाए संते जीव अत्यन्त विकल हो है, तैसे मोहनीयकर्मका उदय जानना। भवधारणाय एति गच्छतीत्यायुः पर्याय स्थितिको जो प्राप्त होइ है सो आयुकर्म कहिए । तिसका स्वभाव जीव पर्यायको स्थिति करै है। कैसे ? जैसे सांकल सापराध पुरुषकी स्थितिको करै है, तैसे आयुकर्म जानना । नाना मिनोतीति नाम अनेक प्रकार गत्यादि रचनाको जो करै सो नामकर्म कहिए। तिसका स्वभाव अनेक प्रकार करणत्व । कैसे ? चित्रकारवत् । जैसे चितेरा अनेक प्रकार रचना रचै तैसे नामकर्म जानना । उच्च नीचं गमयतीति गोत्रम ऊँचे-नीचे गोत्रवि जो जीवको लै जाहै सो गोत्रकर्म कहिए। तिसका स्वभाव ऊँच नीच प्रापकत्व । कैसे ? जैसे कुम्हार घट-हंडादि करणविर्षे समर्थ तैसे गोत्रकर्म जानना । दातृ-पात्रयोरन्तरमेतीत्यन्तरायः। दाताके देते संते अरु पात्रके लेते जो विघ्न करै तैसे अन्तराय कर्म जानना।
अथ इन आठ कर्मप्रकृतिहू की जु है उत्तरप्रकृति तिनकी संख्या कहै हैं अरु मूलप्रकृति हू का स्वभाव
णाणावरणं कम्मं पंचविहं होइ सुत्तणिहिट्ठ।
जह पडिमोवरि खित्त कप्पडयं छादयं होइ ॥२८॥ ज्ञानावरणं कर्म सूत्रनिर्दिष्टं पञ्चविधं भवति–ज्ञानावरणकर्म सूत्रविर्षे कह्या पंच प्रकार सो किस दृष्टान्तकरि है ? यथा प्रतिमोपरि क्षिप्तं कर्पटकं छादकं भवति । जैसे प्रतिमा ऊपर डारा हुआ वस्त्र आच्छादक है तैसे ज्ञानावरणीय कर्म जानना।
दंसण-आवरणं पुण जह पडिहारो हु णिवदुवारम्मि ।
तं णवविहं पउत्तं फुडत्थवाईहि सुत्तम्मि ॥२६॥ यथा नृपद्वारे प्रतीहारः तथा दर्शनावरणीयं कर्म [वस्तुदर्शननिषेधको भवति] जैसे राजाके द्वारपर बैठा प्रतीहार राजाके दर्शन नाहीं करण देहै तैसे दर्शनावरणीयकर्म पदार्थदर्शनका निषेधक जानना। तत् नवविधं स्फुटार्थवाग्भिः सूत्रे प्रोक्तम् सोई दर्शनावरणीयकर्म सिद्धान्तविष गगधरदेवहूने नव प्रकार कह्या है।
महुलित्तखग्गसरिसं दुविहं पुण होइ वेयणीयं तु । सायासायविभिण्णं सुह दुक्खं देइ जीवस्स ॥३०॥
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org