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कर्मप्रकृति एकैकस्मिन् जीवप्रदेशे कर्मप्रदेशाः अन्तपरिहीना भवन्ति । एक-एक जीवके प्रदेशविर्षे कर्महुके प्रदेश अन्तते रहित है।
भावार्थ-यह संसारवि जीव अनन्त हैं। एक-एक जीवके असंख्यात प्रदेश हैं, तिन एक-एक प्रदेशविर्षे अनन्त-अनन्त कर्महुके प्रदेश जानने । तेषां जीवकर्मप्रदेशानां घननिविडभूतः सम्बन्धः ज्ञातव्यः । तिन जीव-पुद्गलके प्रदेशहुका जु घन अत्यन्त स वन निविड अति दृढ़ लोह के मुद्गरसा जु सम्यक् प्रकारकरि बन्ध तिसको नामबन्ध जानिबो। अथ यहु बन्ध कहाते है अरु इस बन्धके उदय होत संते क्या हो है सो कहै हैं
अत्थि अणाईभृवो बंधो जीवस्स विविहकम्मेण ।
तस्सोदएण जायइ भावो पुण राय-दोसमओ ॥२३॥ अस्य जीवस्य विविधकर्मणा सह अनादिभूतः बन्धः अस्ति-इस संसारी जीवके आठ प्रकार कर्महुत अनादिकालविर्षे उत्पन्न हुआ यह पूर्व ही कह्या जो बन्ध सो यावत्काल है । पुनस्तस्योदयेन रागद्वेषमयः भाव उत्पद्यते-बहुरि तिस बन्धके उदयकरि राग-द्वेषमय भाव परिणाम उपजै हैं।
भावार्थ-यहु इस जीवकै अनादि सन्तानवर्ती आठ कर्महुका जो बन्ध है तिसका जब उदय हो है तब यह जीव संसारके समस्त इष्ट अनिष्ट पदार्थहुकों मानता संता रागद्वेषरूप परिणामको करै है । ऐसे परिणाम भावकम कहिए । अथ इनि राग-द्वेष परिणामके होत संते जो हो है सो कहै हैं
भावेण तेण पुणरवि अण्णे बहु पुग्गला हु लग्गति ।
जह तुप्पियगत्तस्स य णिविडा रेणुव्व लग्गंति ॥२४॥ पुनरपि तेन भावेन अन्ये बहवः पुद्गलाः लगन्ति-बहुरि तिस राग-द्वेषमय परिणामकरि और बहुत कार्मण वर्गणा लागै हैं जीवकों सर्वांग ही। किस दृष्टान्तकरि लागै हैं ? यथा तुप्पियगात्रस्य निविडा रेणवः लगन्ति । जैसे घृतलेपि गात्रस्यों निविड सघन धूलि लागै है।
भावार्थ-यहु जब यह जीव इष्ट-अनिष्ट संसारीक भावहोंविषं राग-द्वेषरूप परिणमै है तब इस जीवकै सर्वांग प्रदेशहुविर्षे अनेक वर्गणा लागै हैं। जैसे स्निग्ध गात्रको धूलि अति सघन लागै है तैसे राग-द्वेषरूप स्निग्ध परिणामकरि विलिप्त आत्माके अत्यन्त सघन कर्मरूप धूलि लागै है।
___ इहाँ कोई प्रश्न करै है कि जब यह आत्मा राग-द्वेषरूप परिणमै है, तब इसके कहाँते कर्म आइ लगें हैं ? ताको उत्तर–कि इस तीन्यों लोकवि सर्वप्रदेशविर्षे कार्मणवर्गणा अनन्तानन्त हैं। जिस जागै यह आत्मा जैसे गठास लिए राग-द्वेषरूप परिणमै है ताहीते तिस गठासमाफिक आत्माके कर्मधूलि लागै है। अथ एक समयविर्षे जीवके बन्ध हुआ संता के प्रकार होइ परिणमै है, यह कहै हैं
एकसमएण बद्धं कम्मं जीवेण सत्तभेएहिं ।
परिणमइ आउकम्मं बंधं भूयाउसेसेहिं ॥२५॥ जीवेन एकस्मिन् समये यत् कर्म प्रबद्धं तत्सप्तभेदैः परिणमति-इस जीवने एक समय. विषे जु कर्म बाँधा है सो सात प्रकार होय परिणमै है ।
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