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कर्मप्रकृति
पञ्चैव शरीरबन्धनम् बन्धननामकर्म पंच प्रकार जानहु । सो कौन कौन ? औदारिकवैक्रियिकाहारकतैजसकार्मणबन्धनमिति नामकर्मणः ।
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भावार्थ - जिस नामकर्मके उदद्यतें पंच प्रकार शरीर योग्य वर्गणाहुको परस्पर जीवसों बन्ध होय सो बन्धन कहिए । सो पंच प्रकार शरीरबन्धन जानहु ।
आगे पंच प्रकार संघात नामकर्म कहे हैं
पंच संघादणामं ओरालिय तह य जाण वेउष्वं । आहार तेज कम्मणसरीरसंघादणाममिदि ॥ ७१ ॥
पंचप्रकारं संघात नामकर्म जानीहि पंच प्रकार संवातनामकर्म जानहु । औदारिकं तथैव वैक्रियिकं आहारकं तैजसं कार्मणं शरीरसंघातनामकर्मेति । औदारिकसंघात वैक्रियिकसंघात आहारकसंघात तैजससंघात कार्मणसंघात यहु पंचप्रकार नामकर्म जानहु |
भावार्थ - जिस नामकर्मके उदयकरि पंचप्रकार शरीर-योग्य वर्गणा परस्पर जीवसों अत्यन्त सघन विवर-रहित एकमेक होहि बैठे सो संघात नामकर्म पंचप्रकार कहिए। जो कोई पूछे कै बंधन- संतमें भेद कहा ? ताको उत्तर - कै बन्धन तो सो जु औदारिकादि . शरीरनि वर्गणाहुको अत्यन्त सघन होय करि बन्ध नाहीं होय । अरु अत्यन्त सघन विवर-रहित औदारिकादि वर्गाहुको जो बन्ध होहि सो संघात कहिए । बंधन-संघात में यह भेद है।
आगे पट्प्रकार संस्थाननामकर्म कहिए है
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समचरं णिग्गोहं सादी कुजं च वामणं हुंडं । संठाणं छन्भेयं इदि णिहिंदु जिणागमे जाण ॥७२॥
जिनागमे इति निदिष्ट षद्भेदं संस्थानं जानीहि, सिद्धान्तविषे यह छह प्रकार संस्थाननामकर्म दिखाया है । सु कौन -कौन ? समचतुरस्रं न्यग्रोधं स्वातिकं कुजं वामनं हुण्डकमिति । समचतुरस्रसंस्थान न्यग्रोधपरिमण्डलसंस्थान स्वातिकसंस्थान कुजक संस्थान वामनसंस्थान हुण्डकसंस्थान यह छह प्रकार संस्थानकर्म जानहु |
भावार्थ - जिस नामकर्मके उदयकरि औदारिकादिशरीर हुकी आकृति होय सो षट्प्रकार संस्थान कहिए । सर्वांग शुभलक्षणसंयुक्त अरु सुन्दर जो होय सो समचतुरस्रसंस्थान कहिए १ । जो शरीर ऊपरतें विस्तीर्ण होय, तलेतें संकुचित होय सो न्यग्रोधपरिमण्डलसंस्थान कहिए २ । जो शरीर तलेतें विस्तीर्ण होय, अरु ऊपरतें संकुचित होय सो स्वातिक संस्थान कहिए ३ । वामइ कैसी आकृति होय सो इस शरीरको नाम बाल्मीकि कहिए । जो शरीर सब जांगेतें छोटा होय सो वामन कहिए ४ । जिस शरीर में हाथ पाँव शिर दीर्घ होय अरु पिण्ड छोटा होय सो कुब्जकसंस्थान कहिए ५ । जो शरीर सब जांगा गठीला होय पत्थर की भरी गौण कीसी नाई सो हुण्डकसंस्थान कहिए ६ ।
अथ तीन प्रकार आङ्गोपाङ्ग कहे हैं
ओरालिय वेगुव्विय आहारय अंगुवंग मिदि भणिदं । अंगोवंगे तिविहं परमागम कुसलसाहूहिं ||७३ ||
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