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प्रदेशबन्ध
१४९
होय । क्षान्ति-दान-गुरुभक्तः — शान्ति जु है क्रोधादिनिवृत्ति, चार प्रकार दान, अरु गुरुसेवा इन विषे रत होय, सो जीव भूयः सातं बध्नाति स्थिति अनुभागकी विशेषताकरि सातावेदनीयको बाँधे । विपरीतः इतरं बध्नाति -अरु इस पूर्वोक्त जीवतें विपरीत निर्दयादि परिणामसंयुक्त सो असातावेदनीय बाँधे ।
आगे और भी असातावेदनीयके बन्धके कारण कहे हैं ।
दुक्ख-वह- सोग - तावाकंदण- परिदेवणं च अप्पठियं । अण्णद्वियमुभयद्वियमिदि वा वंधो असादस्स || १४६ ||
दुःख-वध-शोक-तापाक्रन्दन - परिदेवनं आत्मस्थितं भवति - पीडारूप जु परिणाम सो दुःख कहिए । जो आत्मघात परघात सो बन्ध कहिए । इष्ट वस्तु विनसे संते जो अति विकलता सो शोक कहिए। ये दुःखादि आपविषे होय तो असातस्य बन्धो भवति - असातावेदनका बन्ध हो । अन्यस्थितं वा - और जीवके विषे होय तो भी असाताका बन्ध होय । उभयस्थितं इति वा – अरु जो ये दुःखादि आपविषे अरु परविषे होय तो भी असातावेदनीय कर्मका बन्ध होय है ।
आगे दर्शनमोहके बन्ध-कारण कहिए है
अरहंत-सिद्ध-वेदिय-तव- गुरु- सुद- धम्म- संघपडिणीगो । बंधदि दंसणमोहं अनंतसंसारिओ जेण ॥ १४७॥
यः अर्हत्सिद्धचैत्यतपोगुरुश्रुतधर्मसंघप्रत्यनीकः स दर्शनमोहं बध्नाति - जो जीव अरहन्त सिद्ध चैत्यालय तप गुरु सिद्धान्त धर्म चतुर्विध संघ इनका प्रत्यनीक शत्रु है सो जीव दर्शनमोहकर्मको बांधे है । येन अनन्तसंसारी भवति - जिस दर्शनमोहकरि यह जीव अनन्त संसारी होय है ।
आगे चारित्रमोहके बन्ध-कारण कहिए है
तिब्वकसाओ बहुमोहपरिणदो राय-दोससंतत्तो ।
बंधदि चरितमोहं दुविहं पि चरितगुणघादी || १४८ ॥
यः तीव्रकषायः बहुमोहपरिणतः रागद्वेषसंतप्तः चारित्रगुणघाती - जो जीव तीव्रकषायपरिणत है, अरु बहुत मोह-संयुक्त है, अरु राग-द्वेषकरि सन्तप्त है, अरु चारित्रका घातक है, सद्विविधमपि चारित्रमोहं बघ्नानि - वह कषाय- नोकषायके भेदकर दोय प्रकार जो है चारित्रमोह तिसहि बांधे है ।
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आगे नरकार्युके बन्ध-कारण कहै हैं
मिच्छो हु महारंभो णिस्सीलो तिव्वलोभसंजुत्तो । रियागं णिबंधदि पावमई रुहपरिणामो ॥ १४६ ॥
यः खलु मिथ्यादृष्टिः महारम्भः निःशील - तीव्रलोभसंयुक्तः पापमतिः रुद्रपरिणामः – जो जीव निश्चयकरि मिध्यात्वी है, अरु महा आरम्भी है, अरुनिंद्य स्वभाव, तीव्रलोभसंयुक्त है, अरु पापबुद्धि है, अरु महारुद्रपरिणामी है, स जीवः नरकायुर्बघ्नाति - सो जीव नरकायुका बन्धक है ।
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