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कर्मप्रकृति आगे अघातिकर्मनिका अनुभाग कहे हैं
गुडखंडसकरामियसरिसा सत्था हु णिव-कंजीरा ।
विस-हालाहलसरिसा असत्था हु अघादिपडिभागा ॥१४३॥ . प्रशस्ताः अघातिप्रतिभागाः गुड-खण्ड-शर्करामृतसदृशाः, शुभ अघातिया कर्मनिके जु हैं अनुभागके भेद, ते गुड, खाँड, शर्करा अमृत इन चारकी बराबर है। भावार्थअघातिया कर्म दोय प्रकार हैं-एक शुभ अघातिया हैं, एक अशुभ अघातिया हैं। तिनमें शुभ अघातिया कर्महुके अनुभागकी शक्ति चार प्रकार है-गुडवत् १ खाँडवत् २ मिश्रीवत् ३ अमृतवत् ४ इन एक-एक अनुभागशक्तिविर्षे अनन्ते भेद हैं। जैसे एक गुडविर्षे अनेक भेद हैं-जघन्य उत्कृष्ट मध्यम मिष्ठत्व के भेदतें । गुडवत् शक्तिके जघन्य अनुभागते लेकरि उत्कृष्ट अमृत भेदपर्यन्त क्रमवृद्धिसे बढ़ते अनुभागके अनन्त भेद हैं। यह चार प्रकार शुभ अघातियनिके अनुभाग जानना। अप्रशस्ताः निम्ब-काञ्जीर विष-हालाहलसदृशाः, अशुभ अघातियनिके अनुभागकी शक्ति निम्ब १ कांजीर इन्द्रायनका फल २ विष ३ हालाहल महाकालकूट विष ४ इन चारके बराबर है। भावार्थ-इन चार शक्ति विर्षे भी एक-एकमें क्रमवृद्धिता लिये अनन्ते अनुभागके भेद हैं। जैसे एक निम्बविर्षे कटुकताकी तीव्रतामन्दताकरि अनेक भेद हैं । यह चार प्रकार अशुभ-अघातियनिका अनुभाग जानना। .
यह अनुभागबन्ध पूर्ण भया।
आगे किस-किस क्रिया करि शुभ-अशुभ कर्मका बन्ध होय यह कहे हैं
पडिणीगमंतराए उवघादे तप्पदोस-णिण्हवणे ।
आवरणदुगं बंधदि भूयो अच्चासणाए वि ॥१४४॥ प्रत्यनीक-ज्ञानविर्षे दर्शनविषे अरु ज्ञान-दर्शनके धारकनिविर्षे अविनय करिए, सो प्रत्यनीकता कहिए । अन्तरायः-ज्ञान-दर्शनविर्षे व्यवधान देय वा बाधा करे सो अन्तराय कहिए । उपघातः-किसीके उत्तम ज्ञान-दर्शनमें दूषण देय सो उपघात कहिए । वा पढ़नेवालनिके क्षुद्र उत्पातादि करे सो उपघात कहिए। तत्प्रदोषः-तिन ज्ञान-दर्शन अरु तिनके धारकनिविर्षे जो आनन्दका अभाव सो प्रद्वेष कहिए। अथवा इन विषे अन्तःकरणमें पिशुनता राखै सो भी प्रद्वेष कहिए। निह्नवः-ज्ञानके होते संते कहे कै मैं नहीं जानता । अरु कहे कै मेरे पास यह पुस्तक नाहीं, इस भाँति मुकरि करि ज्ञान लोपे सो निह्नव कहिए। अथवा अप्रसिद्ध गुरुको छिपाय प्रसिद्ध गुरुका अपनेको शिष्य कहना। आसादना-ज्ञानादिकगुणकी कथनी न करना । अथवा अविनय करना यह आसादना है । एतेषु षट्सु सत्सु भूयः आवरणद्विकं बध्नाति, इन छह प्रकारनिके होते संते स्थिति-अनुभागकी विशेषता करि ज्ञानावरण दर्शनावरण कर्म बंधे। आगे वेदनीयके बन्धके कारण कहे हैं
भूदाणुकंप-वदजोगजुत्तो खंति-दाण गुरुभत्तो ।
बंधदि भूयो सादं विवरीदो बधदे इदरं ॥१४॥ भूतार्थानुकम्पा-व्रतयोगयुक्तः-जो जीव भूत जु है प्राणी तिनिविर्षे दयासंयुक्त होय, दया सत्य अचौर्य ब्रह्मचर्य निःपरिग्रह इत्यादि व्रतसंयुक्त अरु योग जु है समाधि तिस संयुक्त
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