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प्रदेशबन्ध
पवयण परमा भत्ती आवस्सयकिरिय अपरिहाणी य । मग्गपहावणयं खलु पवयणवच्छल्लमिदि जाणे ॥१५६॥ एदेहिं पसत्थेहिं सोलसभावेहिं केवलीमूले । तित्थयरणामकम्मं बंधदि सो कम्मभूमिजो मणुसो ॥१५७॥
( चतुः कलम् ) दर्शनविशुद्धिः-जो पच्चीस मल-रहित सम्यग्दर्शनकी निर्मलता सो दर्शनविशुद्धि प्रथमभावना १ । विनये सम्पन्नता-रत्नत्रयधारक मुनि अरु रत्नत्रयगुण, इनकी विनयविर्षे प्रवीणता २ । शीलवतेषु अनतीचारः-सामायिकादि शील अरु अहिंसादि व्रत इन विर्षे अतीचाररहितत्व ३। आभीक्ष्णं ज्ञानोपयोगः-निरन्तर सम्यग्ज्ञानका अभ्यास ४ । संवेगः-धर्म अरु धर्मफलविर्षे प्रीति, संसारदुःखतें उद्वेगता ५। शक्तितस्त्यागः-यथाशक्ति विधिपूर्वक पात्रदान सो शक्तितस्त्याग कहिए ६। शक्तितस्तपः-यथाशक्ति कायक्लेश करिए सो शक्तितस्तप कहिए ७ । तथैव साधुसमाधिः-साधु कहिए भली राग-द्वेष-रहित शान्तभावपरिणति सो साधुसमाधि कहिए। किस ही एक कारणते यतिवर्गको उपसर्ग आए संते विघ्नका जो निवारण सो भी साधुसमाधि कहिए ८। वैयावृत्त्यक्रिया-मुनियोग्य क्रियाकरि मुनिके रोगादिक दूर करना ९। अहंदाचार्यबहुश्रुतेषु भक्तिः-अरहन्त १ आचार्य २ बहुश्रुत कहिए उपाध्याय ३ इन विर्षे भक्ति अरहन्तभक्ति १० । आचार्यभक्ति ११। बहुश्रुतभक्ति है १२ । प्रवचने परमा भक्तिः-प्रवचन जो परमागम ताकौ परम भक्ति करना १३ । आवश्यक क्रियाऽपरिहानिः-सामायिक १ प्रतिक्रमण २ स्तवन ३ वन्दना ४ प्रत्याख्यान ५ कायोत्सर्ग ६ ये छह आवश्यक इनकी जो क्रिया तिसकी हानि न करे १४ । मार्गप्रभावना खलु-निश्चयकरि भगवन्तके मागंका ज्ञान दान पूजा तप आदिक क्रियाकरि उद्योत करना १५। प्रवचनवात्सल्यमिति जानीहि-प्रवचन जो है साधर्मी तासों स्नेह १६। ये सोलह कारणभावना जाननी । एतैः प्रशस्तैः षोडशभावैः ये जो हैं उत्तम सोलह कारण भाव तिनकरि केवलिमूलेकेवलज्ञानी अरु श्रुतकेवली इनके समीप, यः कर्मभूमिजो मनुष्यः-जो कर्मभूमिविष उपज्या होय मनुष्य, स तीर्थकरनामकर्म बध्नाति–सो तीर्थंकरनामकर्मकू बांधे।
तित्थयरसत्तकम्मा तदियभवे तब्भवे हु सिझेदि ।
खाइयसम्मत्तो पुण उक्कस्सेण चउत्थभवे ॥१५८॥ तीर्थंकरसत्त्वकर्मा तीर्थकर नामकर्मकी सत्ताके होते संते, हु तृतीयभवे तद्भवं सिद्धयतिनिश्चयकरि तीसरे भववियें सोझे, अथवा वर्तमान ही भवविर्षे सीझे । भावार्थ-जिस जीवके तीर्थंकर नामकमकी सत्ता होय, सो जीव वर्तमानपर्यायविर्षे अथवा तीसरे भवविर्षे अवश्य सीझे । पुनः यः क्षायिकसम्यक्त्वः-किन्तु जो क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव है सो अवश्य करि उत्कृष्टेन चतुर्थभवे उत्कृष्टकरि चौथे भवविर्षे और जघन्यताकरि तद्भव भी सीझै। आगे गोत्रकमके बन्ध-कारण कहै हैं
अरहंतादिसु भत्तो सुत्तराई पढणुमाण गुणपेही ।
बधदि उच्चागोदं विवरीओ बधदे इदरं ॥१५६।। ___ यः अहँदादिषु भक्तः-जो जीव अरहन्त गुरु सिद्धान्तादिक विर्षे भक्त है, सूत्ररुचिःभगवन्त-प्रणीत मार्गविर्षे श्रद्धावान् होय, पठनमानगुणप्रेक्षकः-पठनमान कहिए ज्ञानगुण
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