Book Title: Karmprakruti
Author(s): Hiralal Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 180
________________ स्थितिबन्ध तु जघन्यस्थितिः भिन्नमुहूर्ता, बाकी जु हैं पंच कर्म ज्ञानावरण १ दर्शनावरण २ मोहनीय ३ आयु ४ अन्तराय ५ इनकी जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त जाननी । अन्तर्मुहूर्त कहा कहिए ? एक आवली एक समय यह जघन्य अन्तमुहूर्त है। दोय घड़ी एक समय घाटि उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त कहिए । एक समय एकावलीके ऊपर दोय घड़ी एक समय घाटिके तलें जितने असंख्याते समय भए तितनी जाति मध्यम अन्तमुहूर्त्तके भेद जानने । ए तीन प्रकार अन्तर्मुहूर्त हैं। आगे उत्तर प्रकृतिनिका जघन्य स्थितिबन्ध कहै हैं लोहस्स सुहुमसत्तरसाणमोघं दुगेक्कदलमासं । कोहतिए पुरिसस्स य अट्ठय वासा जहण्णठिदी ॥१३॥ लोभस्य सूक्ष्मसप्तदशकानां ओघवत् , नवम गुणस्थानविर्षे लोभकी जघन्यस्थिति अरु सूक्ष्मसाम्परायगुणस्थानविर्षे सत्तरह प्रकृति निकी जघन्यस्थिति मूलप्रकृतिवत् जाननी । लोभकी जघन्यस्थिति अन्तमुहूर्तकी, ज्ञानावरण ५ अन्तराय ५ दर्शनावरण ४ इनकी भी जघन्यस्थिति अन्तर्मुहूर्त्तकी, यशःकीर्ति उच्चगोत्र इनकी जघन्य स्थिति आठ मुहूर्त, सातावेदनीयकी जघन्यस्थिति बारह मुहूर्त्त । इन सत्तरह प्रकृतिनिका जघन्य स्थितिबन्ध दशम गणस्थानविर्षे जानना। क्रोधत्रिके द्विकैकदलमासाः क्रोध मान माया इस त्रिकविर्षे यथाक्रम दोय मास, एक मास, अर्ध मास जघन्यस्थिति जाननी। क्रोधकी २ मास स्थिति, मानकी एक मास स्थिति, मायाकी अर्धमास स्थिति जाननो । पुरुषस्य जघन्यस्थितिः अष्ट वर्षाणि पुरुषवेदकी जघन्य स्थिति अष्ट वर्षे जाननी। तित्थाहाराणंतोकोडाकोडी जहण्णढिदिवन्धो । खवगे सग-सगवन्धच्छेदणकाले हवे णियमा ।।१३६॥ तीर्थकराऽऽहारकद्विकयोः जघन्यस्थितिबन्धः अन्तःकोटाकोटि-सागरोपमाणि तीर्थकर, आहारकद्विक इनका जघन्य स्थितिबन्ध अन्तः कोडाकोडी सागरोपम जानना । क्षपकेषु स्व-स्वबन्धव्युच्छित्तिकाले नियमाद् भवेत् , यह जु है जघन्य स्थितिबन्ध सो क्षपकगुणस्थाननिविर्षे स्वकीय बन्धव्युच्छित्तिकालविर्षे निश्चयकरि होय है। भिण्णमुहुत्तो णर-तिरियाऊणं वासदससहस्साणि । सुर-णिरयआउगाणं जहण्णओ होइ ठिदिवंधो ॥१३७॥ नर-तिर्यगायुषोः अन्तमुहूर्तः, मनुष्यायु तिर्यगायु इनकी जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त है। सुर-नरकायुषोः वर्षदशसहस्राणि, देवायु अरु नरकायु इनकी जघन्य स्थिति दशसहस्र वर्ष जाननी। सेसाणं पजत्तो बादर एइंदियो विसुद्धो य । बधदि सव्वजहणं सग-सग-उक्कस्सपडिभागे ॥१३८॥. शेषाणां पर्याप्तः बादर एकेन्द्रियः विशुद्धश्च, पूर्व ही कही जो २९ प्रकृति तिनतें बाकी रही जो ६१ प्रकृति तिन्हें पर्याप्त बादर अरु परिणाम करि विशुद्ध ऐसा जो एकेन्द्रियजीव सो सवजघन्यां बध्नाति, सर्वतें जघन्य जो है स्थिति तिसे बांधे है। भावार्थ-इक्यानवे प्रकृतिका जघन्य स्थितिबन्ध बांधिवेको पूर्वोक्त एकेन्द्रियजीव ही योग्य है। किस प्रकार करि ? Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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