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कर्मप्रकृति
: आगे ए चार प्रकृति सम्यग्दृष्टि जीव किस किस स्थानक बाँधे है यह कहै हैंदेवागं पत्तो आहारयमप्पमत्तविरदो दु ।
तित्यरं च मणुस्सो अविरदसम्म समज्जे ||१३१॥
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प्रमत्तः देवायुर्बध्नाति, प्रमत्त जो है षष्ठम गुणस्थानवर्ती मुनि सो उत्कृष्ट देवायुका बन्ध विशुद्धपरिणाम कर बाँधे है । अप्रमत्तविरतस्तु आहरकद्विकम् अप्रमत्त सप्तमगुणस्थानवर्ती जब छठे गुणस्थानके सन्मुख होय है, तब संक्लिष्ट है, ता समय आहारकशरीर आहारकांगोपांग इनका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध बाँधे जातें तीन आयुविना और प्रकृतिनिका उत्कृष्टबन्ध उत्कृष्टसंक्लेश परिणामनि ही करि है। अविरत सम्यग्दृष्टिर्मनुष्यः तीर्थकरं समर्जयति, अविरत सम्यग्दृष्टि जु है मनुष्य सो उत्कृष्ट तीर्थंकरका बन्ध उत्कृष्ट संक्लेश परिणामकरि बाँधे है । यद्यपि तीर्थंकर प्रकृतिका बन्ध अविरतगुणस्थानतें लेकरि सप्तमगुणस्थानपर्यन्त बाँधे है, तथापि अविरत गुणस्थानवर्ती मनुष्य नरक-सन्मुख जब होय, तब उत्कृष्ट स्थिति बाँधे है । और गुणस्थाननिमें तीर्थंकर प्रकृतिका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध नाहीं ।
आगे समस्त ही प्रकृतिनिका मिध्यादृष्टि बन्धक है, यह कहै हैं-र तिरिया सेसाऊ वेगुन्नियछक वियल- सुहुमतियं । सुर-रिया ओरालिय- तिरियदुगुञ्जव संपत्तं ॥ १३२ ॥ देवा पुण एइंदिय आदावं थावरं च सेसाणं । उक्कस्ससं कि लिट्ठा चदुगदिआ ईसिमज्झिमया || १३३॥
उत्कृष्टसं क्लिष्टाः नर- तिर्यञ्च एतानि बन्धन्ति उत्कृष्ट संक्लेश संयुक्त है जो मनुष्य वा तिर्यंच ते इतने कर्मनिका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध करे हैं । ते कौन-कौन ? शेषायूंषि वैक्रियिकषटकं विकलत्रयं सूक्ष्मत्रिकम्, देवायुविना और तीन आयुष नरकायु तिर्यगायु मनुष्यायु । जातें देवायुका उत्कृष्ट बन्ध षष्टम गुणस्थानवर्ती मुनि ही करे है, तातें देवायु विना शेष तीन आयु । अरु वैक्रियिकपटक देवगति- देवगत्यानुपूर्वी नरकगति - नरकगत्यानुपूर्वी वैकिकशरीर वैक्रियिकांगोपांग ६, अरु विकलत्रय द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय ३, अरु सूक्ष्मत्रिक सूक्ष्म साधारण अपर्याप्त ३, इनका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध करें हैं। सुर-नारकाः औदारिक-तिर्यद्विकोद्योतासम्प्राप्तानि, उत्कृष्ट संक्लेशयुक्त जे देव अरु नारकी ते औदारिकशरीर-औदारिकांगोपांग, तिर्यग्गति-तिर्यगत्यानुपूर्वी उद्योत स्फाटकसंहनन इन छह प्रकृति निका त्कृष्ट स्थितिबन्ध करे हैं । देवाः पुनः एकेन्द्रियातपस्थावराणि उत्कृष्टसंक्लेश संयुक्त जो हैं देव ते एकेन्द्रिय आतप स्थावर इन तीन कर्मनिका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध करे हैं। शेषाणां उत्कृष्टसंक्लिष्टाः ईषन्मध्यमिकाश्च चातुर्गतिकाः, पूर्व ही कहे जे कर्म तिन विना और कर्म रहे, तिनका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध क्लेश- संयुक्त जु हैं ते जीव, अथवा थोरे मध्य संक्लिष्ट जु हैं ऐसे चारों गतियोंके जीव ते उत्कृष्ट स्थितिबन्ध करे हैं ।
आगे आठ कर्मनिका जघन्य स्थितिबन्ध कहे हैं
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वारस य बेणी णामागोदे . य अट्ठ य मुहुत्ता । भिण्णमुहुतं तु ठिदी जहण्णयं से पंचन्हं ॥ १३४॥
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वेदनीये द्वादश मुहूर्त्ताः, वेदनीय कर्मविषे बारह मुहूर्त्त जघन्य स्थितिबन्ध है । नामगोत्रयोः अष्टौ मुहूर्त्ताः, नाम अरु गोत्रकर्मविषे आठ मुहूर्त्त जघन्य स्थितिबन्ध है । शेषपञ्चान
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