Book Title: Karmprakruti
Author(s): Hiralal Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 159
________________ १२४ कर्मप्रकृति आगे भावनपुंसक कहिए है-- णेवित्थी णेव पुमं णउंसवो उहयलिंगवदिरित्तो । इट्ठावग्गिसमाणयवेयणगरुओ कलुसचित्तो ॥६॥ यः नैव स्त्री नैव पुमान् स नपुंसकः, जो नाही स्त्री नाहों पुरुष सो नपुंसक कहिए । कैसा है नपंसक? उभयलिङ्गव्यतिरिक्तः, पूर्व ही कहे स्त्री-पुरुषके दोय प्रकार लक्षण तिनतें रहित है। पुनः कीदृशः ? इष्टकाग्निसमानः पंजाएको आगि-समान है, सदा उस्वासादि करि हृदय-मध्य जला करे है। पुनः वेदनागुरुकः, कामकी पीड़ा करि पूर्ण है । पुनः किम् ? कलुषितचित्तः, कलंकित मन है। - भावार्थ-जो इन लक्षण-संयुक्त है सो पुरुष होय, वा स्त्री वा संढ द्रव्य, नपुंसकवेदी कहिए। आगे आयुकर्म चार प्रकार है णारयतिरियणरामर-आउगमिदि चउविहो हवे आऊ । णामं वादालीसं पिंडापिंडप्पमेएण ॥६६।। नारकतिर्यनरामरायुष्यमिति चतुर्विधं आयुभवेत् , नरक-आयु, तिर्यच-आयु, मनुष्यआयु, देवायु इस प्रकार करि आयुकर्म चार प्रकार है । पिण्डापिण्डप्रभेदेन नामकर्म द्वाचत्वारिशद्विधम् , पिण्ड-अपिण्ड प्रकृतिनिके भेदकरि नामकर्म बयालीस प्रकार है । ___ भावार्थ-नामकर्ममें कई एक पिण्डप्रकृति है, तिनके भेदकरि बयालीस प्रकार है । अरु जुदी-जुदो जो गणिए तो तेगणवै होइ । . आगे प्रथम ही पिण्डप्रकृति कहिए है णेरइय-तिरिय-माणुस-देवगइ ति हवे गई चदुधा। . इगि-वि-ति-चउ-पंचक्खा जाई पंचप्पयारेदे ॥६७॥ नारक-तिर्यङ्-मनुष्य-देवगतिः इति गतिः चतुर्धा भवेत् , जिस कर्मके उदय चार गतिनिकी प्राप्ति होय सो गतिनामकर्म कहिए। एक-द्वि-त्रि-चतुः-पञ्चाक्षा इति जातिः पश्च. प्रकारा भवेत् । एकेन्द्रिय द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय पञ्चेन्द्रिय इस प्रकार करि जातिनामकमे पंच प्रकार है। . भावार्थ-जिस कर्मके उदय एकेन्द्रियादि पञ्चेन्द्रिय प्रकार जीव होहि, सो पंच प्रकार जातिनामकर्म कहिए। ओरालिय-वेगुम्विय-आहारय-तेज-कम्मण सरीरं । इदि पंच सरीरा खलु ताण वियप्पं वियाणाहि ॥६८॥ . औदारिक-क्रियिकाहारक-तैजसकार्मणशरीराणि इति खलु पञ्च शरीराणि भवन्ति । भावार्थ-जिस कर्मके उदय पंच प्रकार शरीर होय सो शरीरनामकर्म कहिए । तेषां विकल्पं जानीहि । तिनि पंच प्रकार शरीरनिके भेद अगली गाथामें जानना । तेजा-कम्मेहि तिए तेजा कम्मेण कम्मणा कम्मं । कयसंजोगे चदुचदु चदुदुग एकं च पयडीओ ॥६६॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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