Book Title: Karmprakruti
Author(s): Hiralal Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 169
________________ कर्मप्रकृति स बादर पर्याप्त प्रत्येकशरीर स्थिर शुभ सुभग सुस्वर आदेय यशःकीर्त्ति निर्माण तीर्थंकर इन बारह प्रकृतिको नाम त्रसद्वादशक सिद्धान्तविषें कह्यो है । जहाँ कहीं ' बारस' ऐसा कहें, तहाँ ए बारहु प्रकृति जाननी । आगे स्थावरदशक कहे हैं १३४ थावर सुहममपजत्तंसाहारण सरीरमथिरं च । असुहं दुब्भग दुस्सर णादिज्जं अजसकित्ति त्ति ॥ १०० ॥ स्थावर सूक्ष्म अपर्याप्त साधारण अस्थिर अशुभ दुर्भाग दुःस्वर अनादेय अयशःकीत्ति सिद्धान्त विषे इतनी प्रकृतिको नाम 'स्थावरदशक' कहिए है । इदि णामपडीओ तेणवदी उच्चणीचमिदि दुविहं । गोदं कम्मं भणिदं पंचविहं अंतरायं तु ॥ १०१ ॥ इति नामप्रकृतयः त्रिनवतिरुक्ताः । पिण्डके भेदकरि ए नामप्रकृति तेराणवै कही । गोत्रकर्मद्विविधं भणितम् - उच्चगोत्रं नीचगोत्रमिति, एक ऊँच गोत्र एक नीच गोत्र इस भाँति दो प्रकार गोत्रकर्म कह्यो । जिस कर्मके उदय लोकपूज्य ऊँच कुलविषं जन्म होय सो ऊँचगोत्र कहिए । जा कर्मके उदय लोक-निन्दनीक कुलविषे जन्म होय सो नीच गोत्र कहिए । यह दो प्रकार गोत्रकर्म कह्यो । अन्तरायकर्म पंचप्रकार है ताहि कहिए है तह दाण लाभ भोगुवभोगा वीरिय अंतरायमिदि णेयं । इदि सव्युत्तरंपयडी अडदालसयप्पमा होंति ॥ १०२ ॥ तथा दान-लाभ-भोगोपभोग-वीर्यान्तरायं इति ज्ञेयम्, यह पंच प्रकार अन्तरायकर्म जानहु । Jain Education International भावार्थ - जिस कर्मके उदय दीया चाहै अरु देय न सकै सो दानान्तराय कहिए । जा कर्मके उदय लीया चाहै, पर लाभ न होय सो लाभान्तराय कहिए । जा कर्मके उदय भोग चाहे पर भोगको पावे नाहीं, सो भोगान्तराय कहिए । जा कर्मके उदय उपभोगको चाहे पर उपभोग होय नाहीं सो उपभोगान्तराय कहिए । जा कर्मके उदय शक्तिको चाह अरु बल न होय सो वीर्यान्तराय कहिए । इस प्रकार सर्व उत्तर प्रकृति एकड़ है | सबकौ वर्णन कथा | 1 नामकर्म की प्रकृतिनिको अन्तर्भाव दिखावै हैं देहे अविणाभावी बंधण संघाद इदि अबंधुदया । वण्णचउक्केऽभिण्णे गहिदे चत्तारि बंधुदया || १०३॥ देहे अविनाभाविनौ बन्धन- संघातौ इति अबन्धोदयौ । देह जु है पंच प्रकार नामकर्म ताके विषे बन्धन पंच प्रकार संघात पंच प्रकार अविनाभावी है, इस वास्ते इन्हें अबन्धोदय प्रकृति कहिए । भावार्थ - देह नामकर्म पंच प्रकार है, बन्धन संघात ए भी पंच प्रकार है । तिसतें जहाँ जिस देहका बन्ध उदय है तहाँ तिस देह सम्बन्धी बन्धन- संघातको बंध उदय हो है । जातें देहबन्ध उदय विना इनको बन्ध उदय न पाइए । तातें बन्धन संघातकी दश प्रकृति अबन्धोइय कहिए । इस वास्ते पंच शरीरविषे ए दश प्रकृति गर्भित भई । वर्णtags अभिन्ने गृहीते चतस्रः बन्धोदयाः, वर्णचतुष्क जु है बीस प्रकृति ते अभेदविवर ग्रहे संते चार बन्धोदय प्रकृति कहिए । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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