Book Title: Karmprakruti
Author(s): Hiralal Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 166
________________ प्रकृतिसमुत्कीर्तन १३१ सव्वविदेहेसु तहा विजाहर-मिलिच्छ मणुय-तिरिएसु । छस्संहडणा भणिया णगिदपरदो य तिरिएसु ॥८६।। सर्वविदेहेष तथा विद्याधर-म्लेच्छमनुष्य-तिर्यक्ष षटसंहनना भणिताः, समस्त ही विदेहक्षेत्रविर्षे, तैसे ही विद्याधरनिविषे, म्लेच्छखंडके मनुष्य-तिर्यंचहु विषे छहों संहनन कहे हैं । नागेन्द्रपर्वतपरतः तिर्यक्षु च, नागेन्द्रपर्वततें परे तिर्यंचनिविर्षे भी छहों संहनन होय । भावार्थ-मानुषोत्तरपर्वततें आगे नागेन्द्रपर्वतते उरें जितने द्वीप समुद्र हैं, तिनविर्षे तो वज्रवृषभनाराचसंहनन होय । परन्तु नागेन्द्र पर्वततें परें स्वयम्भूरमणसमुद्रपर्यन्त छहों संहनन जानने। अंतिमतिगसंहडणस्सुदओ.पुण कम्मभूमिमहिलाणं । आदिमतियसंहडणं णस्थित्ति जिणेहि णिहिट्ठ ॥१०॥ कर्मभूमिमहिलानां अन्तिमत्रिक संहननानां उदयोऽस्ति, कर्मभूमिके जु हैं स्त्री तिनके अन्तके तीन संहननको उदय है। भावार्थ-अर्धनाराच कीलक स्फाटिक ए तीन संहनन कर्मभूमिको स्त्रीनिके हो हैं। पुनः तासां आदिमत्रिकसंहननं नास्ति इति जिनैर्निर्दिष्टम् । भावार्थ-कर्मभूमिकी स्त्रीनिके आदिके तीन संहनन न होय, यह वार्ता श्री वृषभनाथने दिखाई है। आगे नामकर्मकी और प्रकृतिनिको कहे हैं पंच य वण्णा सेदं पीदं हरिदरुणकिण्णवण्णमिदि। .. __गंधं दुविहं लोए सुगंधदुग्गंधमिदि जाणे ॥११॥ श्वेतं पीतं हरितं अरुणं कृष्णवर्ण इति पञ्च वर्णा भवन्ति । भावार्थ-जिस कर्मके उदय शरीरनिको श्वेतादिक पंच वर्ण होहि, ते पंच वर्ण प्रकृति जाननी । लोके गन्धो द्विविधः सुगन्धः दुर्गन्ध इति जानीहि । भावार्थ-जिस कमके उदय शरीरविर्षे गन्ध होय सो दोय प्रकार गन्धकर्म कहिए। तित्तं कडुय कसायं अंबिल महुरमिदि पंचरसणाम । मउगं ककस गुरुलघु सीदुण्हं णिद्ध रुक्खमिदि ॥१२॥ तिक्तं कटुकं कषायं आम्लं मधुरं इति पञ्चप्रकारं रसनामकर्म भवति । तिक्त कहिए चिरपड़ा मिरचादि, कटुक निम्बादि, कषाय कसैला आमलादि, आम्ल खट्टा अरु सलोनां यह पंच प्रकार रसनामकर्म जानना । भावार्थ-जिस कर्मके उदय पंच प्रकार रस होय सो रसनामकर्म कहिए । मृदु कर्कशं गुरु लघु शीतोष्णं स्रिग्ध-रूक्षमिति स्पर्शनाम अष्टविकल्पं भवति । मृदु कहिए कोमल, कर्कश कठोर, गुरु भारी, लघु हलका, शीत, उष्ण, स्निग्ध चिकना और रूक्ष रूखा यह आठ प्रकार स्पर्शकर्म जानना । भावार्थ-जिस कर्मके उदय कोमलादिक ए आठ प्रकार स्पर्श होहि, सो स्पर्शनाम कहिए। फासं अट्ठवियप्पं चत्तारि आणुपुग्वि अणुकमसो। णिरयाणू तिरियाणू णराणु देवाणुपुव्वि त्ति ॥९३॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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