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कर्मप्रकृति
यस्य कर्मण उदये वज्रमयानि अस्थि ऋषभ नाराचानि भवन्ति जिस कर्मके उदय होते संते वज्रमय अतिदुर्भेद्य अस्थि कहिए हाड, ऋषभ कहिए वेष्टन, नाराच कहिए कीले ए होहिं तत्संहननं वज्रर्षभनाराचनाम इति भणितम् । सो वज्रर्षभनाराच संहनन कहिए है ।
भावार्थ - जिस कर्मके उदय वज्रमय अस्थि होय, अरु उन ही अस्थिनि ऊपर वज्रमय वेष्टन होय, अरु उन ही हाडनिविषें वज्रमय कीले होय, सो वज्रर्षभनाराचसंहनन जानना । अथ वज्रनाराचसंहनन कहे हैं
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जस्सुद वमयं अड्डी नारायमेव सामण्णं ।
रिसहो तस्संहडणं णामेण य वञ्जणारायं ॥ ७८||
योदये वज्रमयं अस्थि, नाराचं सामान्यः ऋषभः जिस कर्मके उदद्य संते वज्रमई हा अरु कील होइ अरु ऋषभ सामान्य होय, वज्रमई न होय, तत्संहननं नाम्ना वज्रनाराचम् | वह संहनन वज्रनाराच कहिए ।
भावार्थ - जिस कर्म के उदय वज्रमई हाड होय, अरु हाडनिविषे वज्रमई कील हैं; हानिके ऊपर वज्रमई वेठन न होइ सो वज्रनाराच कहिए । आगे नाराचसंहनन कहिए हैं
जस्सुदये वज्रमया हड्डा वो वज्जर हिदणारायं । रिसहो तं भणियव्वं णाराय सरीरसंहडणं ॥ ७६ ॥
यस्योदये वज्रमया हड्डाः वज्ररहितौ नाराच ऋषभौ जिस कर्मके उदय वज्रमई हाड होय, नाराच अरु ऋषभ ये वज्रतें रहित होय; तत् नाराचसंहननं भणितव्यम्, वह नाराचसंहनन कहना चाहिए ।
आगे अर्धनाराचसंहनन कहिए हैं
वज्रविसेसणरहिदा अट्ठीओ अद्धविद्धणारायं ।
जस्सुदये तं भणियं णामेण य अद्धणारायं ||८०||
यस्योदये वज्रविशेषणरहितानि अर्धनाराचानिं अस्थीनि भवन्ति जिस कर्मके उदय वज्रविशेषणते रहित अरु अर्ध है नाराच कील जिन विषे ऐसे हाड होहिं तन्नाम्ना अर्धनाराचं भणितम्, उसका नाम अर्धनाराच कहिए है ।
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भावार्थ - जिस कर्मके उदय शरीर विषं वज्रतें रहित हाड होय, कील भी व रहित होय; परन्तु कील-हाड़हुकी सन्धि विषे आधी वेधी होहिं सो अर्धनाराचसंहनन कहिए ।
अथ कीलक संहनन है हैं
जस्स कम्पस्स उदये अवजहड्डाई खीलियाई व ।
दिवाण हवंति हुतं कीलियणामसंहडणं ॥ ८१ ॥
यस्य कर्मण उदये दृढबन्धानि कीलितानि इव अवज्रास्थीनि भवन्ति, जिस कर्मके उदय दृढ़ है बन्ध जित विषै ऐसे कीले सो वज्रतें रहित हाड होहि; तत् कीलकनामसंहननम् वह कीलकनाम संहनन कहा वे है ।
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