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कर्मप्रकृति जानिए है। बहुरि कैसा है श्रुतज्ञान ? नियमेन-शास्त्रजप्रमुखम् निश्चयकरि शास्त्र-जनित श्रुतज्ञान है प्रधान जिसविर्षे। भावार्थ-यह श्रुतज्ञान दोय प्रकार है-एक शब्दज है, एक लिंगज है। जो शब्दतें उत्पन्न है अक्षर स्वर पद वाक्यरूप है सो शब्दज श्रुतज्ञान कहिए। जो श्रुतज्ञान अनक्षररूप है, एकेन्द्रिय आदि पंचेन्द्रिय पर्यन्त समस्त जीवहुके विर्षे प्रवर्ते है सो लिंगज है । इन दोनोंमें शब्दज श्रतज्ञान प्रधान है, जातें शास्त्र-पठन-पाठन उपदेशादिक समस्त व्यवहारका यह मूल है। अथ अवधिज्ञान के स्वरूप कहिए है
अवधीयदि ति ओही सीमाणाणेत्ति वणियं समये ।
भव-गुणपचयविहियं जमोहिणाणेत्ति णं वंति ॥३६।। अवधीयते इति अवधिः द्रव्य क्षेत्र काल भाव इन चारों करि मर्यादा करिए है जिसकी, सो अवधिज्ञान कहिए । इदं समये सीमाज्ञानं वर्णितम् यही अवधिज्ञान परमागमविषे मर्यादी कया है। भावार्थ-मति श्रत केवल ये तीन्यों अमर्यादिक ज्ञान हैं जातें इन वि अपरम है । मति श्रुतज्ञान परोक्ष समस्त जाने है । केवलज्ञान सकलप्रत्यक्ष जाने है, तातें ये तीन्यों अमर्यादिक ज्ञान कहिए। इस अवधिज्ञानका जु है विषय सो मर्यादा लिए है, तातें अवधिज्ञान सीमाज्ञान कह्यो है । यद् भवगुणप्रत्ययविहितं तद् अवधिज्ञानं इति वदन्ति । जो यह ज्ञान भवप्रत्यय अरु गुणप्रत्ययके भेदकरि दोयप्रकार कह्यो है । तिसहि अवधिज्ञान ऐसो नाम आचार्य कहे हैं।
भावार्थ-अवधिज्ञान दोय प्रकार है-भवप्रत्यय अरु गुणप्रत्यय । भवप्रत्यय सो कहा कहिए ? जो पर्यायको निमित्त पायकरि उपजे सो भवप्रत्यय कहिए। सो भवप्रत्यय देवनारकीके अरु तीर्थकरके पर्यायविर्षे अवश्य होय । इहां कोई प्रश्न करे कै अवधिज्ञान तो अवधिज्ञानावरणीयकमके क्षयोपशमते उपजे है, तुमने इहां कह्यो के भवप्रत्यय अवधि पर्यायको निमित्त पाय उपजै है सो यह क्यों संभवे है ? ताको उत्तर-कै जब देव नारक पर्यायकी उत्पत्ति होय है तब ही अवश्यकरि अवधिज्ञानावरणीयकर्मको क्षयोपशम हो है जाते देवनारकीकी पर्यायविर्षे वह सबको है तातें भवप्रत्यय अवधिको पर्याय निमित्त कारण कहिए है । जैसे पक्षी पर्यायविर्षे उड़नेको गुण सबके है, कोई शिक्षा देयकरि उड़ना सिखावता नाही; स्वाभाविक पर्याय अवलंबिकरि उड़ना जानै हैं तैसो पर्याय अवलंबिकरि भवप्रत्यय अवधि जाननी । जो अवधिज्ञानावरणीयकर्मके क्षयोपशमतें मनुष्य अरु तिर्यंचविषे होइ सो गुणप्रत्यय अवधि कहिए । मनुष्य अरु तिर्यंचविष भी तब होइ जो सैनी पर्यायमें होहि । अरु जो सम्यग्दर्शनादिकको निमित्त होइ। अथ मनःपर्यय ज्ञानको स्वरूप कहिए है
चिंतियमचिंतियं वा अद्धं चिंतियमणेयभेयगयं ।
मणपज्जवं ति वुच्चइ जं जाणइ तं खु णरलोए ॥४०॥ चिन्तितं अचिन्तितं वा [ अर्धचिन्तितं ] अनेकभेदगतं परमनसि स्थितं अर्थ यत् जानाति तत् मनःपर्ययज्ञानं उच्यते । चिन्तितं पूर्व ही चिन्तयो होय, अचिन्तितं आगे चिन्तइगा, अर्धं चिन्तितं वा अथवा आधा चिंतया होय ऐसा जो अनेक प्रकार संयुक्त परमनसिस्थितं अर्थ पराये मनकेविषे तिष्ठै है जु पदार्थ तिसकों जो जाने सो मनःपर्ययज्ञान कहिए । तत् खलु नरलोके सो मनःपर्ययज्ञान मनुष्यलोकवि उपजै है।
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