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प्रकृतिसमुत्कीर्तन जातें उड़ि ऊंचे जाय है अरु नीचे आवे है, अरु पांख हलावती देखिए है, ताते वकपंक्ति है ऐसा जु है ठीक ग्रहण सो कहिए । धारणा कहा कहिए ? जो पदार्थ यथार्थ ग्रहीत है कालान्तरविषं भी न भूलै तिसका नाम धारणा कहिए । ए चारि अवग्रहादिक भेद जानने । आगे बहु आदिक भेद कहिए है-बहु अबहु बहुविध अबहुविध क्षिप्र अक्षिप्र निसृत अनिमृत उक्त अनुक्त ध्रुव अध्रुव । बहु बहुत वस्तुको नाम जानना। अबहु स्तोकका नाम जानना । बहुविध बहुप्रकारकरि जाने । अबहुविध एक प्रकारकरि जाने । क्षिप्र शीघ्र ही जाने । अक्षिप्र विलम्बकरि जाने । निमृत निकसे पुद्गलको जाने । अनिमृत अनिकसे पुद्गलको जाने । उक्त कहनेका नाम जानना। अनुक्त अनुक्त अभिप्राय कहिए। ध्रुव यथार्थ ग्रहणशक्ति । अध्रुव अयथार्थ ग्रहणनाम । इन बारहसों अवग्रहादिकके जो भेद जोडिए तो ४८ भेद होय हैं । बहुत वस्तुको जो किंचित् ज्ञान सो बहु-अवग्रह । बहुतको सन्देहरूप जानना सो बहु-ईहा । बहुतको निश्चित जानना सो बहु-अवाय । जो बहुतको भूले नहीं सो बहु-धारणा। इस ही भांति ए चारों अवग्रहादिक बहु-अबहु आदि भेद १२ सो लगाएतें भेद ४८ जानने। अथ एई अड़तालीस पंच इन्द्रिय छठे मनसों लगावने सो दो सै अठासी २८८ भेद जानने ही कह्या जो अवग्रह तिनके दोय भेद जानने-एक अर्थ-अवग्रह एक व्यंजन-अवग्रह । जो प्रगट अवग्रह होइ कै यह कछू वस्तु है सो अर्थ अर्थ-अवग्रह कहिए । अरु जो अप्रगट अवग्रह होय कै यह कछू वस्तु है ऐसा भी ज्ञान न होय सो व्यंजनावग्रह कहिए । जैसे कोरे सरवाके ऊपर दोइ बूंद डारें मालूम नाहीं हो है। अरु सरवा आला नाहीं हो है। अरु वही सरवा बारम्बार पानीके सीचिए तो आला हो है, तैसे स्पशे जिह्वा नासिका कान इन चारयों इन्द्रियविर्षे स्पर्श रस गन्ध शब्दरूप परिणमै है तब अर्थ-अवग्रहकरि प्रगट हो है व्यंजन-अवग्रहके पीछे अर्थावग्रह जानना । व्यंजनावग्रह मन अरु नेत्र विना चार इन्द्रियहुको है । मन अरु नेत्रको अर्यावग्रह है। उन चारयों इन्द्रियहुको व्यंजनावग्रह अरु अर्थावग्रह दोऊ है जातें मन अरु नेत्रकरि अर्थके विना ही स्पर्श दूरतें ज्ञात हो है। अरु वे जो हैं चार इन्द्रिय तिनकरि पदार्थके स्पर्शे विना ज्ञान नाहीं हो है, ताते स्पर्शन जिह्वा नासिका कर्णविर्षे प्रथम ही जब स्पर्श रस गन्ध शब्दरूप पुद्गल स्पर्श है तब दोय तीन समय व्यंजनावग्रह हो है, पीछे बारम्बार स्पर्शते अर्थावग्रह हो है । नेत्र अरु मनकरि पदार्थके स्पर्शे विना जाते ज्ञान है तातें इन दोनों को प्रथम हो अवग्रह है। तातें यह सिद्धान्त सिद्ध हुआ कै चार इन्द्रियहुको अर्थावग्रह है । आगे इन चार इन्द्रियहुके व्यंजनावग्रहसों बहु आदिक १२ भेद लगाइए तो अड़तालीस ४८ भेद हो है । पूर्व ही कहे जे २८८ भेद अरु अड़तालीस व्यंजनावग्रह के ते सब मिलायकरि ३३६ भेद मतिज्ञानके भये ।
अथ श्रुतज्ञानको स्वरूप कहै हैं
अत्थादो अत्यंतरमुवलंभं तं भणंति सुदणाणं । . .
आभिणियोहियपुव्वं णियमेणिह सत्थजप्पमुहं ॥३८॥ . अर्थात् अर्थान्तरं येन उपलभ्यं तत् आचार्याः श्रुतज्ञानं भणन्ति मतिज्ञानकरि ठीक किया है जो पदार्थ तिसतें और पदार्थ जिस ज्ञानकरि जानिए विशेषरूप तिसका नाम आचार्य श्रुत कहै हैं । भावार्थ-जिस ज्ञानकरि एक पदार्थके जाने सते अनेक पदार्थ जानिए सो श्रुतज्ञान कहिए । सो श्रुतज्ञान कैसा है ? आभिनिबोधिकपूर्वम् । भावार्थ-मतिज्ञान विना श्रुतज्ञान न होय । जो पहिले मतिज्ञानकरि पदार्थ जान्यो होय तो तिसके पीछे श्रुतज्ञानकरि विशेष
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