Book Title: Karmprakruti
Author(s): Hiralal Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 152
________________ प्रकृतिसमुत्कीर्तन ११७ भावार्थ-अढ़ाई द्वीपविर्षे सब जीवहुको भूत भविष्यत वर्तमानरूप जु है अनेक प्रकार मनके परिणामनि सूक्ष्म स्थूलरूप सो मनःपर्ययज्ञानकरि सब जानिए है । सो मनःपर्ययज्ञान दोय प्रकार है-एक ऋजुमति एक विपुलमति । ऋजुमति मनःपर्ययज्ञान कालाश्रित जघन्यता. करि अपने अरु औरके आगिले पीछिले दोय-तीन पर्याय जाने । अरु उत्कृष्ट योजन : नवके मध्य जीवनिके मनकी बात जाने। विपुलमति मनःपर्ययज्ञान जघन्य कालस्थिति सात-आठ पर्याय जाने । उत्कृष्ट असंख्यात आगिले पीछिलै पर्याय जाने । क्षेत्राश्रित जघन्यताकरि योजन ९ नवके मध्य जीवनिके मनकी बात जाने । उत्कृष्ट मानुषोत्तर पर्वतके भीतर जाने, बाहिर नाहीं । यह ऋजुमति विपुलमतिका भेद जानना। अथ केवलज्ञानको स्वरूप कहिए है संपुण्णं तु समग्गं केवलमसवत्त सव्वभावगयं । लोयालोयवितिमिरं केवलणाणं मुणेयव्वं ॥४१॥ एतादृशं केवलज्ञानं मन्तव्यम् । कीदृशम् ? सम्पूर्ण अखण्डम् । पुनः किंविशिष्टम् ? समग्रम् । अनन्तज्ञानादिशक्तिकरि समस्त है । पुनः कीदृशम् ? सर्वपदार्थके जाननेते निर्मल है । पुनः किम् ? असपत्नम् सर्वघातिया कर्महुके क्षयतें बन्ध-रहित है । पुनः किम् ? सर्वभावगतम् समस्त जु है लोकालोकविर्षे पदार्थ तिनिविर्षे एक समयमांहि गया है । पुनः किम् ? लोकालोकवितिमिरम् लोकालोकप्रकाशक है ऐसो केवलज्ञान जानना । ... मदि-सुद-ओही-मणपजव-केवलणाण-आवरणमेवं । पंचवियप्पं णाणावरणीयं जाण जिणभणियं ॥४२॥ मति-श्रुतावधि-मनःपर्यय-केवलज्ञानानां आवरणं एवं पञ्जविकल्पं ज्ञानावरणीयं जानीहि जिनभणितम। ..... ___अथ दर्शनावरणीयकर्मके स्वरूप कहनेको प्रथम ही दर्शनको स्वरूप कहिए है जं सामण्णं गहणं भावाणं णेव कट्टुमायारं । अविसेसिदण अढे दंसणमिदि भण्णए समए ॥४३॥ यद्भावानां सामान्यग्रहणं तत् समये दर्शनं इति भण्यते जो पदार्थको सामान्य ग्रहण सो दर्शन ऐसो उदवो शास्त्रविर्षे कहिए है। कहा करि ? आकारं नैव कृत्वा भेद नाहीं करिकेकै यह घट है कै पट है ऐसो भेदके बिना ही करे। अर्थात् अविशेष्य पदार्थनिकी जाति क्रिया गुणकरि विशेषता बिना ही करै । भावार्थ-जो पदार्थको सामान्य वस्तुमात्र ग्रहे, विशेष भेदकरि न ग्रहे सो दर्शन जानना । ज्ञान सर्वांग पदार्थको ग्राहक है। संसारविर्षे जे छद्मस्थ हैं तिनके दर्शन पहिले है, पाछे ज्ञान है । केवलीके युगपत् एक ही बार होय हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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