________________
१०८
कर्मप्रकृति है, यावत् प्रमाण कंकण है सो क्षेत्र है, कंकणकी जु काल-मर्यादा सो काल है, जो कंकणका स्वरूप सो भाव है। इस कंकणपर्यायके चतुष्टयकी अपेक्षा सुवर्ण अस्ति है। अरु वही सुवर्ण कुण्डलपर्यायके चतुष्टयकी अपेक्षा नास्ति है। या ही भाँति पूर्वोक्त प्रकारको नाई सप्तभंग सुवर्णविर्षे अपने पर्यायकी अपेक्षा जानना। यों ही अपने-अपने पर्यायकी अपेक्षा सप्तभंगात्मक सब द्रव्य सधैं हैं। जाते द्रव्य उत्पाद व्यय ध्रौव्य संयुक्त है, तातें सप्तभंग पर्यायकी अपेक्षा है। आगें एई सप्तभंग संक्षेपता करि कहिए है-है १ । नाहीं २। है नाहीं ३ । है नाहीं अवक्तव्य ४। है करि है, है नाहीं करि है पर अवक्तव्य है ५ । नाहीं करि नाहीं है, नाही करि नाही, पर अवक्तव्य है ६ । है करि है, नाहीं करि नाहीं है, है नाही करि है नाही, पर अवक्तव्य है ७ । द्रव्य ऐसा जानना । जैसे एक ही पुरुष पिताकी अपेक्षा पुत्र है, पुत्रकी अपक्षा पिता है। अरु वही पुरुष मामाकी अपेक्षा भानिजा है, भानिजाकी अपेक्षा मामा है, बहिनकी अपेक्षा भाई है, स्त्रीकी अपेक्षा भर्ती है इत्यादि अनेक अपेक्षाकरि वही पुरुष अनेक रूप है, तैसे ही द्रव्य सप्तभंगात्मक जानना ।
अथ शिष्य प्रश्न करै है-कै ज्ञानावरण दर्शनावरण वेदनीय मोहनीय आयु नाम गोत्र अन्तराय ऐसा ज है पिछली गाथामें पाठक्रम करो स काहेकों. और ही भाँति सो आगेपोछे ए कर्म कहे होते ताकौ गुरु उत्तर करयौ आगिली गाथामें
अब्भरिहिदादु पुव्यं णाणं तत्तो दु दंसणं होदि ।
सम्मत्तमदो विरियं जीवाजीवगदमिदि चरिमे ॥१७॥ अस्यार्थः-अभ्यहितात् पूर्व ज्ञानं जीवके समस्त गुणहुमें ज्ञानगुण बड़ा है, पूज्य है, तिसतें पूर्व ही कह्या। ततः दर्शनं भवति तिसते उत्तरि दर्शन गुण प्रधान है, तातें ज्ञानके पीछे दर्शनगुण कह्या । अतः सम्यक्त्वं तिसतें उतरि सम्यक्त्व गुण प्रधान है, तिसतें दर्शनके आगे सम्यक्त्वगुण कह्या। चरमे जीवाजीवगतं वीयं पठितम् जातें वीर्यगुण जीवमें भी पाइए है अरु अजीवमें भी पाइए, तातें वीयगुण सबतें अन्त में कह्या। जिस भाँति यहु अनन्त चतष्टयको पाठक्रम कह्या, तिस ही भाँति घातियहको पाठक्रम जानना । जातें अनन्त चतुष्टयको ए चारि घातियाकर्म घाते हैं। जैसे प्रधान गुणहुको जो-जो घातियाकर्म घातै है तैसा-तैसा प्रधानत्व घातियाकर्महुमें जानना । सबमें ज्ञानगुण प्रधान है तिसके आच्छादनतें प्रथम ही ज्ञानावरणी कर्म कह्या । तिसतें दर्शनावरणी, तिसते मोहनीय, तिसतें अन्तराय । इन चारि घातियहुको पाठक्रम जानना। ___अथ शिष्य कहे है कि अन्तरायकर्म आठहु कर्म के विष अघातियहुके अन्तराख्या, सु किस वास्ते ? चाहिए तो घातियहुको अन्त ? ताको उत्तर आचार्य कहै हैं
घादिवि अघादि वा णिस्सेसं घादणे असक्कादो।
णामतियणिमित्तादो विग्धं पठिदं अघादिचरिमम्हि ॥१८॥ - अन्तरायकर्म घात्यपि अघातिवद् ज्ञातव्यम्, अन्तरायकर्म यद्यपि घातिया है, तथापि अघातिया सो है । काहे ते ? निःशेषजीवगुणघातने अशक्यत्वात् । समस्त ही जीवके गुणको घातनेको असमर्थ है। जाते याकी पंचप्रकृति देशघाति हैं। पुनः नाम त्रिकनिमित्ततः बहुरि नाम गोत्र वेदनीय इन तीन्यों कर्महुको निमित्त पायकरि उदय होय है। अतः विघ्नं अघातिचरमे पठितम् इसतें अन्तरायकर्म अघातिकर्म के अन्त पढ़िए है ।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org