Book Title: Karmprakruti
Author(s): Hiralal Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

Previous | Next

Page 146
________________ प्रकृतिसमुत्कीर्त्तन १११ भावार्थ :- यहु जीव जब यह बन्ध करें एक समयविषे तब एक ही समय प्रबद्धका बन्ध करै । परन्तु वही समयप्रबद्ध जीवकै प्रदेशहु सेती बंधा सातकर्मरूप परिणमै है । जाते इस जीवकै संसारविषे समय-समय सातकर्म बन्ध-योग्य परिणाम सदा रहै हैं, तातैं सात जातिका बन्ध कर है । जैसे एक अन्न आहारया संतै रस रुधिर मास चर्वी अस्थि मज्जा शुक्र इन सात धातुरूप होइ परिणमै है । जातें पंचेन्द्रिय औदारिक शरीर में सात धातु परिणमनकी योग्यता है, तातैं परिणमै है । तैसे यह कर्म सात जाति होइ परिणमै है ज्ञानावरणी आदि सप्त आयुकर्म बिना | पुनः यत् आयुःकर्म तत् भुक्तायुः शेषेण । बहुरि जो आयुकर्मको बन्ध है सो भुज्यमान है आयु तिसके त्रिभागकरिके जानना । भावार्थ : – यह जु जितनी जिस जीवके वर्तमान एक पर्यायमिश्रित आयु है ति आयुके तीसरे भागविषे आयुबन्ध जानना । अरु जो तीसरे भागविषे न होइ तो तीसरेके तीसरे भाग में होइ । अरु जो इहाँ भी न होइ तो इसके तीन भाग करिए। इस ही भाँति नव बार तीन-तीन भाग करि अन्त मरणसमय अवश्य आयुबन्ध होइ । अथ बन्ध कै प्रकार है सो क है हैं सो बंधो चउभेओ णायव्वो होदि सुत्तणिद्दिट्ठो । पड - ट्ठदि - अणुभाग- परसबंधी पुरा कहिओ ||२६|| चतुर्भेदः बन्धः पुरा कथितः सूत्रनिर्दिष्टः । पूर्व ही जो बन्ध सो चार प्रकार कया । कौन -कौन ? प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध, प्रदेशबन्ध यहु चार प्रकार बन्ध जानना | प्रकृतिः परिणामः स्यात् स्थितिः कालावधारणम् । अनुभागो रसो ज्ञेयः प्रदेशो दलसञ्चयः ॥ प्रकृति कहिए स्वभाव परिणाम जिस कर्मका जु स्वभाव सु प्रकृति कहिए । जु ज्ञानका आच्छादनत्व सुज्ञानावरण कर्मका स्वभाव है । दर्शनका आच्छादन सु दर्शना - वरणका स्वभाव है. इस भाँति सब कर्महुका स्वभाव जानना । योगनिकी तीव्रता - मन्दताकरि जुतीत्र-मन्द स्वभाव लिए कर्मका बन्ध सो प्रकृतिबन्ध कहिए । कषायको तीव्र - मन्दताकरि उत्कृष्ट मध्यम जघन्यरूप कालकी मर्यादा लिए बन्ध होइ सु स्थिति कहिए । कषायकी तीव्र-मन्दता अनेक भेद लिए जु अपने रस लिए बन्ध होइ सो अनुभागबन्ध कहिए । योगनिके अनुसारे तीव्र - मन्दता रूप करि तीव्र मन्दरूप होइ आत्माके प्रदेशनिसों एकमेक होइ जु जु कर्म ही की पुंज बंधे सो प्रदेशबन्ध कहिए। एक-एक बन्धके असंख्याते - असंख्याते भेद हैं तीव्र-मन्दताकरि, जातें कषाय योगनिका भी असंख्यात जातिका परिणमन है । अथ इन आठ कर्महुका दृष्टान्त है Jain Education International. पडपडिहारसि मज्जाहडिचित्तकुलालभंडयारीणं । जह एदेसिं भावा तह विह कम्मा मुणेयव्त्रा ||२७|| यथा पट - प्रतीहार-असि-मद्य-हलि - [ चित्रक - ] कुलाल- भाण्डारिकाणां एतेषां भावाः तथैव कर्माणि ज्ञातव्यानि यथाक्रमम् । जैसे पट वस्त्र, प्रतीहार दरवान, असि खड्ग, मद्य For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198