Book Title: Karmprakruti
Author(s): Hiralal Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 104
________________ स्थितिबन्ध श्रीन्द्रियस्य – ५० दर्शन मोहस्योत्कृष्ट स्थितिबन्धः साग० ५० go चारित्रमोहस्य उ० साग० २८ मा० - ज्ञा० द० वे० अं० सा० २१ भा० go नामगोत्रयोः सा० १४ मा० उ चतुरिन्द्रियस्य - १०० दर्शनमोहस्य उ० स्थितिब० सा० १०० ४ge चारित्रमोहस्य उ० सा० ५७ भा० जे 30° ज्ञा० द० वे० अं० सा० ४२ भा० नामगोत्रयोः सा० २८ भा० असंज्ञिनः - १००० दर्शनमोहस्य उ० सा० १००० ४००० चारित्रमोहस्य सा० ५७१ मा० ३००० ज्ञा० द० वे० अं० सा० ४२८ भा० ३२०० नामगोत्रयोः सा० २८५ मा० ए० द्वी० श्री० प्र०. ७० प्र० ७० प्र० ७० च० До ७० पं० ० до ७० फ० १ फ० २५ फ० ५० फ० १०० फ० १००० Jain Education International इ० ४० इ० ४० इ० ४० इ० ४० इ० ४० ३० ३० ३० ३० ३० २० २० २० २० २० त्रीन्द्रिय पर्याप्त जीवके दर्शनमोहका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध ५० सागर, चारित्रमोहकी सोलह कषायका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध २८ सागर, ज्ञानावरणादि तीन घातिया कर्मोंकी उन्नीस और असातावेदनीय इन बीस प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध २१ सागर; नामकर्मकी ३९ और नीचगोत्रका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध १४३ सागर होता है । ६६ चतुरिन्द्रियपर्याप्त जीवके मिथ्यात्वका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध १०० सागरका; चारित्रमोहकी सोलह प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध ५७ ३ सागरका; ज्ञानावरणादि तीन घातिया - raat उन्नीस और असातावेदनीय इन बीस प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध ४२ सागरका; नामकर्मकी उनतालीस और नीचगोत्र इन चालीस प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध २ सागरका होता है । असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक जीवके मिथ्यात्वका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध १००० सागरका; चारित्रमोहकी सोलह कषायोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध ५७१३ सागरका; ज्ञानावरणादि तीन घातिया कर्मोंकी उन्नीस और असातावेदनीय इन बीस प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध ४२८ सागरका; नामकर्मकी उनतालीस और नीच गोत्र इन चालीस प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध २८५ सागरका होता है । For Personal & Private Use Only ऊपर द्वीन्द्रिय से लगाकर असंज्ञी पंचेन्द्रियतकके जीवोंके सातों कर्मोंकी उत्कृष्ट स्थितिका निरूपण किया गया है । इनमें से जिस जीवके जिस प्रकृतिका जितना उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता है, उसमें से पल्यका संख्यातवाँ भाग कम कर देनेपर वह जीव उस प्रकृति के उतने जघन्य स्थितिबन्धको करता है । www.jainelibrary.org

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