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कर्मकृत
एतासु प्रशस्ताः ४२ । श्रप्रशस्ताः प्रकृतयः ३३ । अप्रशस्तवर्णचतुष्कमस्तीति तस्मिन् मिलिते ३७ अप्रशस्ता: 1 ॥ १४३॥
प्रशस्तप्रकृतीनां — अमृतसदृशमुत्कृष्टं चतुर्थस्थानं भवति । शर्करासदृशमनुत्कृष्टं तृतीयस्थानम् । खण्डसदृशमजघन्यं द्वितीयस्थानम् । गुडसदृशं जघन्यमेकस्थानं भवति । अप्रशप्रकृतीनां - हालाहलसमानमुत्कृष्टं चतुर्थस्थानम् । विषसमानमनुत्कृष्टं तृतीयस्थानम् । कांजीरसमानमजघन्यं द्वितीयस्थानम् । निम्बसमानं जघन्यमेकस्थानं भवति ।
इत्यनुभागबन्धः समाप्तः ।
विशेषार्थ - कर्मों के फल देनेकी शक्तिको अनुभाग कहते हैं । प्रकृतिबन्ध में कर्मों के घाती अघाती भेद बतला आये हैं। उनमें से घातिया कर्मोंके अनुभागकी उपमा लता, दारु, अस्थि और शैलसे दी गयी है । जिस प्रकार इन चारोंमें उत्तरोत्तर कठोरता अधिक पायी जाती है, उसी प्रकार घातिया कर्मोंके लतासमान एकस्थानीय अनुभागसे काष्ठसमान द्विस्थानीय अनुभाग और अधिक तीव्र होता है। उससे अस्थिसमान त्रिस्थानीय अनुभाग और भी अधिक तीव्र होता है और उससे शैलसमान चतुःस्थानीय अनुभाग और भी अधिक तीव्र होता है । इन चारों जाति के अनुभागों का बन्ध उत्तरोत्तर संक्लिष्ट, संक्लिष्टतर और संक्लिष्टतम परिणामों से होता है । घातिया कर्मोंमें दो भेद हैं- देशघाती और सर्वघाती । देशघाती अनुभाग दारुजातीय द्विस्थानिक अनुभागके अनन्तवें भाग तक और सर्वघाती अनुभाग उसके आगेसे लेकर शैलके अन्तिम तीव्रतम चतुःस्थानीय अनुभाग तक जानना चाहिए।
अघातिया कर्मोंके भी दो भेद हैं- १ पुण्यरूप और २ पापरूप । प्रकृतिसमुत्कीर्त्तन में पुण्य और पाप प्रकृतियोंको बतला आये हैं। पुण्यप्रकृतियोंका अनुभाग गुड़, खाँड, शक्कर और अमृत तुल्य उत्तरोत्तर मीठा बतलाया गया है, तथा पापप्रकृतियोंका अनुभाग नीम, काँजीर विष और हालाहलके समान उत्तरोत्तर कडुआ बतलाया गया है। पापप्रकृतियों के अनुभागका बन्ध संक्लेशकी तीव्रता से और पुण्यप्रकृतियोंके अनुभागका बन्ध संक्लेशकी मन्दता या परिमी विशुद्धता से होता है । सामान्यतः सभी मूल कर्मों और उत्तर प्रकृतियोंके अनुभागबन्धके विषय में यही नियम लागू है । यतः घातिया कर्मोंको पाप प्रकृतियों में ही गिना गया है, अतः उनका अनुभाग उपमाकी दृष्टिसे लता, दारु आदिके समान होते हुए भी फलकी दृष्टिसे नीम, काँजीर आदिके समान उत्तरोत्तर कटुक ही होता है ।
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जिस जातिके तीव्रतम संक्लेश परिणामोंसे पापप्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध होता है, उनसे विपरीत अर्थात् विशुद्ध परिणामोंके द्वारा उन प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागका बन्ध होता है । इसी प्रकार जिन विशुद्धतम परिणामोंके द्वारा पुण्य प्रकृतियोंका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध होता है उनसे विपरीत परिणामोंके द्वारा अर्थात् संक्लेश परिणामोंसे उनका जघन्य अनुभागबन्ध होता है । अनुभाग- विषयक अन्य विशेष वर्णन गो० कर्मकाण्डसे जानना चाहिए ।
इस प्रकार अनुभागबन्धका वर्णन समाप्त हुआ ।
1. इस स्थलपर गो० कर्मकाण्डकी संस्कृत टीकामें जो संदृष्टि दी है, उसे भी परिशिष्टमें देखिये |
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