Book Title: Karmprakruti
Author(s): Hiralal Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 118
________________ प्रशस्ति टीकाकारस्य प्रशस्तिः मूलसङ्घ महासाधुर्लक्ष्मीचन्द्रो यतीश्वरः । तस्य पट्टे च वीरेन्दुर्विबुधो विश्ववन्दितः ॥१॥ तदन्वये दयाम्भोधिर्ज्ञानभूषो गुणाकरः । टीकां हि कर्मकाण्डस्य चक्रे सुमतिकीर्तियुक् ॥२॥ टीकां गोम्मटसारस्य विलोक्य विहितं ध्रुवम् । पठन्तु सजनाः सर्वे भाष्यमेतत् महत्परम् ॥३॥ प्रमादाद् भ्रमतो वापि यद्यशुद्धं कदाचन । टीकायामत्र संशोध्यं विबुधद्वेषवर्जितैः ॥४॥ इति भेट्टारकश्रीज्ञानभूषणनामाङ्किता सूरिश्रीसुमतिकीतिविरचिता कर्मकाण्डस्य ( कर्मप्रकृतेः ) टीका समाप्ता । पाता है । कहनेका सरि यह है कि दूसरोंके दान देने में विघ्न करनेसे दानान्तराय कर्मका बन्ध होता है, दूसरोंके लाभमें विघ्न करनेसे लाभान्तराय कर्मका बन्ध होता है । अन्न आदि एक वार हो खाने-पीनेके काममें आनेवाली वस्तुओंको भोग कहते हैं स्त्री, शय्या आदि बारबार भोगी जानेवाली वस्तुओंको उपभोग कहते हैं। जो दूसरोंके भोगमें अन्तराय डालता है । वह भोगान्तराय कर्मका बन्ध करता है और जो दूसरोंके उपभोगमें विघ्न डालता है वह उपभोगान्तराय कर्मका बन्ध करता है। जो दूसरोंको निरुत्साहित करके उनके बल-वीर्यको खण्डित करता है, वह वीर्यान्तराय कर्मका बन्ध करता है। इस प्रकार जो पाँचों प्रकारके अन्तराय कर्मका बन्ध करता है वह अपने लिए मनोनुकूल इष्ट वस्तुकी प्राप्तिसे वंचित रहता है। इस प्रकार नेमिचन्द्राचार्य विरचित कर्मप्रकृति ग्रन्थ समाप्त हुआ। टीकाकारको प्रशस्तिः श्रीकुन्दकुन्दाचार्यके मूलसंघमें महासाधु, यतीश्वर श्रीलक्ष्मीचन्द्र हुए। उनके पट्टपर विश्व-वन्दित महाविद्वान् श्रीवीरचन्द्र हुए । उनके अन्वय (परम्परा ) में दयाके सागर और गुणोंके आकर ( खानि ) श्रीज्ञानभूषण हुए। उन्होंने सुमतिकीर्त्तिके साथ इस कर्मकाण्ड ( कर्मप्रकृति ) की टीका की। यह टीका गोम्मटसार ( कर्मकाण्ड ) को देखकर की गयी है, यह निश्चयसे जाने और सभी सज्जन इस महान् परम (श्रेष्ठ ) भाष्यको पढ़ें । यदि इस टीकामें कदाचित् कहीं पर प्रमादसे या भ्रमसे कोई अशुद्धि रह गयी हो, तो द्वेषभावसे रहित विद्वज्जनोंको इसका संशोधन कर देना चाहिए (ऐसी मेरी विनय है ) ॥१-४॥ - इस प्रकार भट्टारक ज्ञानभूषणके नामसे अंकित सूरिश्री सुमतिकीर्ति-विरचित कर्मकाण्ड ( कर्मप्रकृति ) की टीका समाप्त हुई। 1. ब भनोहरम् । वरचिता । 2. ब ज्ञानभूषण विरचिता। 3. व नास्त्ययं पदः । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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