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प्रकृतिसमुत्कीर्तन अथ चारि अघातिया कर्महूके मध्य आयुकमके स्वरूप क्यों कहै हैं
कम्मकयमोहवड्डियसंसारम्हि य अणादि जुत्तम्हि ।
जीवस्स अवठ्ठाणं करेदि आऊ हलिव्व णरं ॥११॥ कर्मकृतमोहवर्धितसंसारे आयुः जीवस्य अवस्थानं करोति । कर्महु करि कय कीयहु जो मोह तिस करि बढ्यौ जु संसार तिस विषै जीकी स्थितिको आयुकर्म करै है। कैसा है संसार ? अनादिजुत्तम्हि । अनादिकालथै चल्यौ आयौ है। आयुकर्म संसारविषै किस दृष्टान्तकरि स्थिति कर है ? यथा हलिः नरस्य अवस्थानं करोति । जैसे हडिविष पाँव दिए संते हडि पुरुषकी स्थितिको करै है, तैसे ही आयुकर्म स्थिति करै है।
___भावार्थ-यह जु है अनादि संसार, सो बढ़े तो है मोहादिक कर्महु करि, परन्तु इस विषै स्थितिको कारण एक आय ही कर्म जानना। जातें जिस गतिविषै यह जीव जाय है तिस गति विषै जितनी आयुकर्मकी स्थिति है, तितने कालताई सुख-दुखको भोक्ता है । अथ नामकर्मके स्वरूपको कहै हैं
गदिआदिजीवभेदं देहादी पोग्गलाण भेयं च ।
गदि-अंतरपरिणमणं करेदि णामं अणेयविहं ॥१२॥ . इदं नामकर्म गत्यादिजीवभेदान् अनेकविधान करोति । यह जु है नामकर्म सो अनेक प्रकार गति आदि जीव के पर्यायभेद करै है । तु पुनः देहादिपुद्गलभेदान् करोति । बहुरि यह नामकर्म अनेक प्रकार देहादिक जु है पुद्गलके भेद तिनकौं करै है । पुनः गत्यन्तरपुरिणमनम् । बहुरि यह नामकर्म गतितै अउर गतिके परिणमनको करै।
तात्पर्य यह-इस नामकर्मकी तिराणवै प्रकृति है, तिनमें केई एक प्रकृति जीवविपाकी हैं, केई एक पुद्गलविपाकी हैं, केई क्षेत्रविपाकी हैं। जे जीवविपाकी प्रकृति हैं, ते अनेक प्रकार गति आदिक जीवके भेदकौं करै हैं । अरु जे पुद्गलविपाकी है ते औदारिकादिशरीर संस्थान संहननादिक अनेक प्रकार करै है। अरु जे क्षेत्रविपाकी हैं चारि आनुपूर्वी ते गति के परिणामकौं करै हैं। अथ गोत्रकर्मके स्वरूपकों कहै हैं
संताणकमेणागय जीवायरणस्स गोदमिदि सण्णा ।
उच्च णीचं चरणं उच्च णीचं हवे गोदं ॥१३॥ सन्तानक्रमेणागतजीवाचरणस्य गोत्रं इति संज्ञा। सन्तानक्रमकरिकै चलौ आयो है जीवका आचरण, तिसकी गोत्र जैसा नाम कहिए है। यदुच्चं चरणं भवेत् तदुच्चं गोत्रम् , यन्नीचं चरणं तच्च नीचं गोत्रम् । अथ वेदनीयकर्मके स्वरूपकौं कहै हैं
अक्खाणं अणुभवणं वेयणीयं सुहसरूवयं सादं।
दुक्खसरूवमसादं तं वेदयदीदि वेयणीयं ॥१४॥ अक्षाणां यद् अनुभवनं तद् वेदनीयम् । समस्त इन्द्रियहुका जु है प्रत्यक्ष आस्वाद सो वेदनीय कहिए । सो दुविध प्रकार है । यद् इन्द्रियाणां सुखरूपं तत्सातं गुडादिचतुर्भेदम् ।
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