Book Title: Karmprakruti
Author(s): Hiralal Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 136
________________ प्रकृतिसमुत्कीर्त्तन १०१ ए दोऊ गिनती समान है, तो दोनों बात गाथामें क्यों न कही ? ताको समाधान - संसारतें ज्यों-ज्यों जीव मुक्त होंय, त्यों-त्यों सिद्धराशि बढ़ती जाय हैं, त्यों ही सिद्धराशिको अनन्त मां भाग बढ़े है, तातें सिद्धराशिको अनन्तमां भाग एक अनन्तता करि निश्चित नही है, उत्कृष्ट होत जात है । अरु यह संसार में जो है, अभव्यराशि सो ज्योंकी-त्यों रहै है । जातें इसमें कछू बढ़ती घटती नाहीं हैं, तातें इसकी अनन्तगुणी अनन्तता निश्चित है, तातें यह ठीकता जाननी | अभव्यराशिको अनन्तगुणें करें तें जो अनन्तता होय, ताही प्रमाण वर्गणाको जघन्य समयप्रबद्ध जानना । या गिनतीका अनन्ततातें समयप्रबद्धकी जघन्यता की मर्यादा है । या जघन्य समयप्रवद्धवर्गणाकी अनन्ततातें आगे भूत भविष्यत् वर्तमानकालकी अपेक्षाकरि सिद्धके अनन्तवें भाग जितने अपने अनन्ते भेद लिये हैं जघन्य उत्कृष्ट मध्यम अनन्तता भेदकर तितने ही भेद समयप्रबद्ध के अनन्तता करि जानना । तातें अभव्यराशितें अनन्तगुणप्रमाण वर्गणानिको जघन्य समयप्रबद्ध, अरु भविष्यत् कालकी अपेक्षा उत्कृष्ट सिद्धराशिके अनन्तिम भागप्रमाण वर्गणानिको उत्कृष्ट समयप्रबद्ध है । मध्यमके अनन्ते भेदकरि मध्यम अनन्त जानना । समयप्रबद्धकी अनन्तताके दिखायवेकूं ए दोऊ गिनती गाथामें कही । समये समये कति निर्जरा भवति पुनः कति सत्ता तिष्ठति जीवस्य तदेवोच्यते गाथया । जीवके प्रतिसमय कितनी निर्जरा होय और कितनी सत्ता रहे यह बात आगेकी गाथा में दिखाइए है जीरदि समयबद्धं पओगदो णेगसमयबद्धं वा । गुणहाणीण दिवडुं समयपबद्ध हवे सत्तं ||५|| अयं संसारी जीवः एकस्मिन् समये एकं समयप्रबद्धं सदा कालं निर्जरयति - यह जो है संसारी जीव सो एक-एक समयविषै एक-एक समयप्रबद्ध सदा काल निर्जर है । प्रयोगतः एकस्मिन् समये अनेकसमयप्रबद्धं निर्जरयति - प्रयोग कहिए मन वचन कायकी चंचलता की वृद्धि उदीरणावश एक समयमें अनेक समयप्रबद्धनिकूं निर्जर है। अग्रेऽर्धगाथायां कथयति-एवं सत्ता किती तिष्ठति ? आगे आधी गाथा में कहै हैं कि इस प्रकार सत्ता कितनी रहै है ? तत्रोच्यते-द्वयर्धगुणहानिमात्रं समयप्रबद्धं सत्त्वं भवेत् — द्वद्यर्धगुणहानिमात्र समयप्रबद्धस्य सत्तां जीवः करोति - यह जीव डेढ़ गुण हानिप्रमाण समयप्रबद्धनिकी सत्ताकूं सदा धारण करै हैं । औदारिक वैक्रियिक आहारक इनकी नाना गुणहानिको काल अन्तर्मुहूर्त है । तैजस कार्मणको नाना गुणहानिका काल पल्यको असंख्यातमो भाग जानिबो । सबकी गुणहानिको काल एक समय है । औदारिक शरीरकी स्थिति तीन पल्य, वैक्रियिककी तेतीस सागर, आहारककी अन्तर्मुहूत्त, तैजसकी छयासठ सागर, कार्मणकी उत्कृष्ट स्थिति सामान्यताकरि सत्तर कोड़ाकोड़ी। विशेषकर ज्ञानावरणादिककी जुदी जानिबी । जिस कर्म की जितनी स्थिति है, तिस माफिक नाना गुणहानि अर्ध अरु गुणहानि हो है । द्वयर्धगुणहानिको अर्थ कहियतु हैंजो कर्म अनन्तवर्गणाके पुंजकरि समयप्रबद्धरूप बंध्यो, सो एक नानागुणहानिविर्षे आधोआधो होय खिरे है । जितनी नाना गुणहानि हैं, ताहीतें इहको नाम द्वयर्धगुणहानि कहिए । द्वि कहिए दोय, तिसको अर्धगुण कहिए आधा सो हानि कहिए ये घाटि होई । जितनी नानागुणहान हैं तिनि विषे खिरे है, यह द्वयर्धगुणहानिको अर्थ है । नाना गुणहानिको अर्थ कहिए Jain Education International. For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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