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प्रदेशबन्ध
उम्मदेसगो मग्गणासगो गूढहिययमाइल्लो | सेसीलो यससल्लो तिरियाउ' बंधदे जीवों ॥। १५० ।।
उन्मार्गोपदेशक : मिथ्यामार्गोपदेशकः सन्मार्गनाशकः सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्ररूपमोक्षमार्गनाशक: गूढहृदयः मायावी शठशीलः सशल्यः मायामिध्यानिदानयुक्तः स जीवस्तिर्यगायुर्बध्नाति ॥ १५० ॥ पडी तणुकसाओ दाणरदी सील-संयम विहीणो । मज्झिमगुणेहि जुत्तो मणुयाऊ बंधदे जीवों ॥ १५१ ॥
यः स्वभावेन मन्दकषायोदयः दानेषु प्रीतः शीलैः संयमेन च विहीनः मध्यमगुणैर्युक्तः स जीवो मानुष्यायुर्बध्नाति ॥ १५१ ।।
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विशेषार्थ - जो जीव धर्मसे पराङ्मुख है, पापोंका आचरण करता है, महाहिंसाका कारणभूत आरम्भ और परिग्रह रखता है, लेश मात्र भी व्रत-शीलादिका न तो स्वयं पालन करता है और न दूसरोंको करने देता है, करनेवालोंकी हँसी उड़ाता है अभक्ष्य-भोजी, मद्यपाय, माँससेवी और सर्वभक्षी है, जिसके परिणाम सदा ही चारों प्रकार के आर्त और रौद्रध्यानरूप रहते हैं और जिसका चित्त पत्थरकी रेखाके समान कठोर है ऐसा जीव नरकाका बन्ध करता है ।
अब तिर्यगायु बन्धके कारण बतलाते हैं
जो उन्मार्गका उपदेश देता है, सन्मार्गका नाशक है, गूढ़हृदयी, और महामायावी है, किन्तु मुखसे मीठे बचन बोलता है शठ-स्वभावी और शल्य युक्त है, ऐसा जीव तिर्यगायुका बन्ध करता है ॥ १५० ॥
विशेषार्थ - जो जीव कुमार्गका उपदेश तो देता ही है, साथ ही, सन्मार्गका उन्मूलन भी करता है, सन्मार्गपर चलनेवालोंके छिद्रान्वेषण और असत्य दोषारोपण करता है, मायामिथ्यात्व और निदान; इन तीन शल्योंसे युक्त है, जिसके व्रत और शीलमें अतीचार लगते रहते हैं, पृथिवी-रेखाके सदृश रोषका धारक है, गूढहृदय है अर्थात् इतनी गहन मायाचारी करनेवाला है कि जिसके हृदयकी कोई बात जान ही नहीं सकता; शठशील है, अर्थात् मनमें मायाचार रखते हुए भी ऊपरसे मीठा बोलनेवाला है और महामायावी है अर्थात् करे कुछ, सोचे कुछ और बतलाये कुछ ऐसी मायाचारी करनेवाला है; ऐसा जीव पशु-पक्षियों में उत्पन्न करानेवाले तिर्यगायुकर्मको बाँधता है ।
अब मनुष्यायुके बन्धके कारण बतलाते हैं
जो स्वभावसे ही मन्दकषायी है, दान देनेमें निरत है, शीलसंयमसे विहीन होकर भी मनुष्योचित मध्यमगुणोंसे युक्त है, ऐसा जीव मनुष्यायुका बन्ध करता है ।। १५१ ।।
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विशेषार्थ - जिसका स्वभाव जन्मसे ही शान्त है, मन्दकषायवाला है, प्रकृति से ही भद्र और विनम्र है, समय-समय पर लोकोपकारक धर्म और देशके हित कारक कार्योंके लिए दान देता रहता है, अप्रत्याख्यानावरण कषायके तीव्र उदयसे व्रत-शीलादिके पालन न कर सकने
१. त सठसीलो । २. पञ्चसं० ४, २०६ । गो० क० ८०५ । ३. आ० 'दाणरदी' इति पाठः । ४. पञ्चसं ०४, २१० । गो० क० ८०६ ।
1. ब रत्नत्रय मोक्षमार्गनाशकः ।
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