Book Title: Karmprakruti
Author(s): Hiralal Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 102
________________ स्थितिबन्ध उत्कृष्टस्थितिबन्धसंदृष्टिर्यथा दमिचा० मो० ज्ञा०६९अंब्वे० नानीगो. १६ अं० २० प्र० ३९ पर्याप्तकेन्द्रियस्योत्कृष्टस्थितिबन्धः सा० १ सा०४ सा. सा०३ द्वीन्द्रियस्योत्कृष्टस्थितिबन्धः सा० २५ सा० १४२ सा० १०५ सा. श्रीन्द्रियस्योत्कृष्टस्थितिबन्धः सा० ५० सा० २०४ सा०२१ सा० १४२ चतुरिन्द्रियस्योत्कृष्टस्थितिबन्धः सा० १०० सा० ५७१ सा० ४२ सा० २८४ असंज्ञिरजेन्द्रियस्योत्कृष्टस्थितिबन्धः- सा० १००० सा० ५७१३ सा० ४२४४ सा० २८५४ एकेन्द्रियबादरपर्याप्तको जीवः दर्शनमोहस्य मिथ्यात्वप्रकृतेरुत्कृष्ट स्थितिबन्धं सागरोपममेकं १ बध्नाति । चारित्रमोहस्य षोडशकषायाणां उत्कृष्टस्थितिबन्धं सागरस्य सप्तभागानां मध्ये चतुर्भागान् बध्नाति । ज्ञा० ५ द० ९ अं. ५ असातवे० ५ एवं विंशतिप्रकृतीनामुत्कृष्टस्थितिबन्धं सागरस्य सप्तभागानां मध्ये विभागान् बध्नाति । नामकर्मप्र. हुण्डक १ असम्प्राप्ता. २ अरति ३ ४ शोक ५ नपुं० ६ तिर्यग्द्वयं ८ भय ९ जुगुप्सा १० तैजस ११ कार्मण १२ औदारिकदिक १४ श्रातपोद्योत १६ नीचगोत्र १७ सचतुष्क २१ अगुरुलघु २२ उप० २३ पर० २४ उच्छवास २५ एके० २६ पंचे. २७ स्था० २८ नि० २९ असद्गमन ३० वर्णचतुष्क ३४ अस्थिरषटकं ४० एकेन्द्रियः पर्याप्तो बध्नाति । द्वीन्द्रियपर्याप्तो दर्शनमोहस्य मिथ्यात्वोत्कृष्टस्थितिबन्धं सा. २५ चारित्रमोहस्य षोडशकषायाणां उ० बं० सा. १४ मा० २ ज्ञा०५ द० ९ असातवे० १ अं. ५ एवं विंशतिप्रकृतीनां उत्कृष्टस्थितिबन्धं सा. १० भा० नामप्र० ३९ नीचगोत्रस्य १ उत्कृ० सा० ७ भाग १ बध्नाति । श्रीन्द्रियजीवः पर्याप्तो दर्शनमोहस्य मिथ्यात्व प्र० उ० सा० ५० कनाति । चारित्रमोहस्य षोडशकषायाणां उ० सा० २८ भा० ४। ज्ञा० ५ द. ६ अं० ५ असातवे० १ एवं २० उ० सा० २१ भा० । नामप्र. ३६ नीच गो० १ एवं ४० प्रकृतीनां स्थितिबं० सा. १४ भा०२ बध्नाति । चतुरिन्द्रियः पर्याप्तो दर्शनमो० मिथ्या० उत्कृ० सा० १०० चारित्रमोहस्य १६ प्र. उत्कृष्टस्थितिबन्धं साग० ५७ भा०ज्ञा० ५ द. ९ अं० ५ असातवे० १ एवं विंशतिप्रकृतीनां उ० सा० ४२ भा० नामप्र० ३९ नीचगो० १ एतासां ४० प्र० उत्कृ० सा० २८ मा० बध्नाति । 1 उत्कृष्ट करणसूत्र-प्रतिपादित नियमके अनुसार उत्तर प्रकृतियोंके भी उत्कृष्ट स्थितिबन्धको निकाला है, जो इस प्रकार है . एकेन्द्रियजीवके चारित्र मोहनीयकी १६ कषायोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध ४ सागर; ज्ञानावरणकी ५ दर्शनावरणकी अन्तरायकी ५ और असातावेदनीय इन २० प्रकतियोंका स्थितिबन्ध सागर; हुण्डकसंस्थान, सृपाटिकासंहनन, अरति, शोक, नपुंसकवेद, तिर्यग्गति, तियेग्गत्यानुपूर्वी, भय, जुगुप्सा, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, औदारिकशरीर, औदारिक-अंगोपांग, आतप, उद्योत, नीचगोत्र, त्रसचतुष्क, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास एकेन्द्रियजाति, पंचेन्द्रियजाति, स्थावर, निर्माण, अप्रशस्तविहायोगति, और अस्थिरषट्क इन ३६ प्रकृतियोंका र सागर-प्रमाण उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होगा। इसी प्रकार ऊपर बतलायी गयी त्रैराशिकविधिसे १५ कोडाकोडी सागरकी उत्कट स्थिति वाले सातावेदनीय, स्त्रीवेद, मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वीका; १८ कोड़ाकोड़ी सागरकी उत्कृष्ट स्थितिवाले वामन संस्थान, कीलकसंहनन, विकलत्रिक, सूक्ष्मत्रिकका; १६ कोड़ाकोड़ी सागरकी उत्कृष्ट स्थितिवाले कुब्जकशरीर और अर्ध-नाराचसंहननका; १४ कोड़ाकोड़ी सागरकी उत्कृष्ट स्थिति वाले स्वातिसंस्थान और नाराचसंहननका; १२ कोड़ाकोड़ी सागरकी उत्कृष्ट Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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