Book Title: Karmprakruti Author(s): Hiralal Shastri Publisher: Bharatiya GyanpithPage 54
________________ प्रकृतिसमुत्कीर्तन महुलित्तखग्गसरिसं दुविहं पुण होइ वेयणीयं तु । सायासायविभिण्णं सुह-दुक्खं देइ जीवस्स ॥३०॥ पुनः वेदनीयं कर्म द्विविधं भवति । कथम्भूतम् ? मधुलिप्तखड्गसदृशम् । तस्सातासातभेदप्राप्त सत् जीवस्य सुख-दुःखं ददाति ॥३०॥ मोहेइ मोहणीयं जह मयिरा अहव कोदवा पुरिसं । तं अडवीसविभिण्णं णायव्वं जिणुवदेसेण ॥३१॥ मोहनीयं कर्म अात्मानं मोहयति । यथा पुरुषं मदिरा मोहयति । अथवा कोद्रवाः पुरुषं मोहयन्ति । तन्मोहनीयं अष्टाविंशति-भेदभिन्नं जिनोपदेशेन ज्ञातव्यम् ॥३१॥ आऊँ चउप्पयारं णारय-तिरिच्छ-मणुय-सुरगइगं । हडिखित्त पुरिससरिसं जीवे भवधारणसमत्थं ॥३२॥ आयुःकर्म चतुःप्रकारम्-नारक-तिर्यङ्-मनुष्य-सुरगतिप्राप्तं सत् । कथम्भूतम् ? हडिक्षिप्तपुरुषसदृशम् । पुनः किं लक्षणम् ? जीवानां भवधारणसमर्थ भवति ॥३२॥ चित्तपडं व विचित्तं णाणाणामे णिवत्तणं णामं । तेयाणवदी गणियं गइ-जाइ-सरीर-आईयं ॥३३॥ नामकर्म गति-जाति-शरीरादिकं त्रिनवति ९३ सङ्ख्यागणितं भवति । पुनः तन्नामकर्म किम्भूतम् ? चित्रपटवद् विचित्रं भवति । पुनः किम्भूतम् ? नानाप्रकारनामनिष्पादकं भवति ॥३३॥ गोदं कुलालसरिसं णीचुचकुले सुपायणे दच्छं । घडरंजणाइकरणे कुंभायारो जहा णिउणो ॥३४॥ गोत्रं कर्म कुलालसदृशं नीचोच्चकुलेषु समुत्पादने दक्षं समर्थ मवति । यथा कुम्भकारो घटरञ्ज मधुलिप्त खड्गके सदृश वेदनीयकर्म है । वह दो प्रकारका है, जो सातावेदनीयकर्म है बह जीवको सुख देता है और जो असातावेदनीय कर्म है वह जीवको दुःख देता है ॥३०॥ जिस प्रकार मदिरा अथवा मत्तौनिया कोदों पुरुषको मोहित करते हैं उसी प्रकार मोहनीयकर्म जीवको मोहित करता है । जिनेन्द्रदेव के उपदेशसे उसे अट्ठाईस भेदरूप जानना चाहिए ॥३॥ नारक, तिर्यंच, मनुष्य और देवायुके भेदसे आयुकर्म चार प्रकारका कहा गया है। यह कर्म हडि (खोड़े ) में डाले गये पुरुपके सदृश जीवोंको किसी एक भवमें धारण करनेके लिए समर्थ है ॥३२॥ चित्रकारके सदृश नामकर्म जीवके नानाप्रकारके आकारोंका निर्माण करता है। यह गति, जाति, शरीर आदिके भेदसे तेरानबे प्रकारका कहा गया है ॥३३।। कुलाल ( कुम्भकार ) के सदृश गोत्रकर्म नीच और उच्चकुलोंमें उत्पादन करनेमें समर्थ कहा गया है । जिस प्रकार कुम्भकार घट-सिकोरा आदि बनाने में निपुण होता है उसी प्रकार १. भावसं० ३३४ । २. ब जिह। ३. भावसं० ३३३ । ४. ब आउं । ५. भावसं० ३३५ । ६. ब पडव्व । ७. भावसं०३३६ । ८. ज समुपायणे । ९. भावसं० ३३७ । 1. ब घटालंजरादिकरणे । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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