Book Title: Karmprakruti Author(s): Hiralal Shastri Publisher: Bharatiya GyanpithPage 92
________________ प्रकृतिसमुत्कीर्त्तन संघाताः पञ्च ५ समचतुरस्रादिसंस्थानानि षट् ६ औदारिकवैक्रियिकाऽऽहारकाङ्गोपाङ्गानि त्रीणि ३ वज्रवृषभनाराचादिसंहनननामानि षट् ६ श्वेतादिवर्णाः पञ्च ५ कटुकारिसाः पञ्च ५ सुगन्ध दुर्गन्धौ द्वौ २ शीतादिस्पर्शाष्टकं ८ इति पञ्चाशत् ५० । निर्माणं । श्रातपोद्योतौ द्वौ २ स्थिरास्थिरद्विकं शुभाशुभद्विकं २ प्रत्येकसाधारणद्विकं २ अनुरुल वातपरातत्रिक ३ इति द्वाषष्टिः ६२ पुद्गलविपाकीनि भवन्ति पुद्गले एवैषां विपाकत्वात् ॥ ११७ ॥ भव क्षेत्र जीवविपाकीन्याह आऊणि भवविवाई खेत्त विवाई य आणुपुच्चीओ ! अत्तरि अवसेसा जीवविवाई मुणेव्वा ॥ ११८ ॥ भववि० आ० ४ । क्षेत्रवि० आनु० ४ । शेषाः जीवविपाकिन्यः ७८ । नरकतिर्यङ्मनुष्यदेवायूंषि चत्वारि ४ भवविपाकीनि । नरकतिर्यङ्मनुष्यदेवगत्यानुपूर्व्याणि चत्वारि ४ क्षेत्रविपाकीनि । ' अवशिष्टाष्टसप्ततिः ७८ जीवविपाकीनि । कुतः ? नारकादिजीवपर्यायनिर्वर्तन हेतुत्वाजीवविपाकीनि । एवं प्रकृतिकार्यविशेषा ज्ञातव्याः ॥ ११८ ॥ तानि कानि जीवविपाकीनीति चेदाह - arita गोद वादकावण्णं तु णामपयडीणं । सत्तावीसं चेदे अट्ठत्तरि जीवविवाईओ ॥ ११६ ॥ सातासातावेदनीयद्वयं २ उच्चनीचगोत्रद्वयं २ । घातिज्ञानावरण ५ दर्शनावरण ९ मोहनीय २८ अन्तराय ५ इति घातिसप्तचत्वारिंशत् ४७, वेदनीय गोत्रद्वयं मिलिता एकपञ्चाशत् ५१, नामकर्मणः सप्तविंशति २७ श्वेत्यष्टसप्ततिः ७८ जीवविपाकीनि भवन्ति ॥ ११९ ॥ नामकर्मणः सप्तविंशतिप्रकृतीराह Jain Education International. ५७ तित्थयरं उस्सा बादर पत्त सुस्सरादेज्जं । 3 जस-तस - विहाय - सुभगदु चउगइ पण जाइ सगवीसं ॥ १२० ॥ तिं १ । उ १ । बा २ । प २ । सु २ । आ २ । य २ । २ । वि२शसु २ । ग ४ । जा ५ । सर्वाः २७ । अब भवविपाकी, क्षेत्रविपाकी और जीवविपाकी प्रकृतियोंको बतलाते हैं नारकादिक चार आयु भवविपाकी हैं, क्योंकि नरकादि भव में ही इन प्रकृतियोंका फल प्राप्त होता है । चार आनुपूर्वी प्रकृतियाँ क्षेत्रविपाकी हैं; क्योंकि परलोकको गमन करते हुए जीवके मध्यवर्ती क्षेत्र में ही इनका उदय होता है। शेष अठहत्तर प्रकृतियाँ जीवविपाकी जानना चाहिए; क्योंकि इनका फल जीवको ही प्राप्त होता है ॥ ११८ ॥ अब इन्हीं अठहत्तर जीवविपाकी प्रकृतियोंको गिनाते हैं वेदनीयकी दो, गोत्रकी दो, घातिया कर्मों की सैंतालीस, इसप्रकार ६ कर्मोंकी इकावन प्रकृतियाँ तथा नामकर्मकी सत्ताईस । इसप्रकार सब मिलाकर अठहत्तर प्रकृतियाँ जीवविपाकी हैं ।। ११६|| ८ अब नामकर्मकी उपर्युक्त सत्ताईस प्रकृतियाँ बतलाते हैं तीर्थंकर प्रकृति, उच्छ्वासप्रकृति, तथा बादर, पर्याप्त, सुस्वर, आदेय, यशःकीर्ति, १. पञ्चसं० ४, ४९२ । गो० क० ४८ । २. गो० क० ४९ । ३. गो० क० ५० १. 1. ब पुद्गलविपाकिद्वाषष्टिः भवविपाकिचतुष्कं क्षेत्रविपाकिचतुष्कं एताभ्यः सप्ततिसंख्याभ्य उद्वरिताः श्रष्टसप्ततिः । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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