Book Title: Karmprakruti Author(s): Hiralal Shastri Publisher: Bharatiya GyanpithPage 94
________________ • ' स्थितिबन्ध ५६ 'तिघादिनदिएस' इति विवातितृतीयेषु ज्ञानावरण-दर्शनावरणान्तरायघातित्रि 'तदिए' इति तृतीयकर्मणि वेदनीयाख्य च उत्कृष्टस्थितिबन्धस्त्रिंशत् ३० कोटीकोटिसागरोपमाणि भवति । 'नामदुगे' नामगोत्रयोः द्वयोविंशति २० कोटीकोटिसागरोपमाणि उत्कृष्एस्थितिबन्धो भवति । मोहनीये कर्मणि उत्कृष्टस्थितिबन्धः सप्ततिः ७० कोटीकोटिसागरोपमाणि भवति । प्रायुःकर्मणि शुद्धानि कोटीकोटिविशेषणरहितानि सागरोपमाण्येव त्रयस्त्रिंशत् ३३ उत्कृष्टस्थितिबन्धो भवति ॥१२२॥ अथोत्तरप्रकृतीनां स्थितिबन्धं गाथाषटकेनानाऽऽह दुक्ख-तिघादीणोघं सादित्थी-मणुदुगे तदद्धं तु । सत्तरि दंसणमोहे चरित्तमोहे य चत्तालं ॥१२३॥ दु ज्ञा ५ दं ९ अं ५ सा० ३० को० । इ म १५ को० सा० । मो० ७० को० सा० । क. १६ सा० ४० को। 'दुक्ख-तिघादीणे,' इति असातावेदनीयं १ ज्ञानावरणानां पञ्चकं ५ दर्शनावरणानां नवकं अन्तरायाणां पञ्चकं ५ एवं विंशतिप्रकृतीनां २० उत्कृष्टस्थितिबन्धः ओघः मूलप्रकृतिवत् त्रिंशत् ३० कोटीकोटिसागरोपमाणि भवति । सातवेदनीयं १ स्त्रीवेदः १ मनुध्यगति-मनुष्यगत्यानुपूर्विद्वयं २ एतासु चतसृषु उत्कृष्टस्थितिबन्धः तदर्धं पञ्चदशकोटीकोटिसागरोपमाणि भवति । दर्शनमोह मिथ्यात्वे बन्धे एकविधत्वात् , तत्र दर्शनमोहे उत्कृष्टस्थितिबन्धः सप्ततिः ७० कोटीकोटिसागरोपमाणि भवति । चारित्रमोहनीयषोडशकषायेषु अनन्तानुबन्ध्यप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानसंज्वलनभेदमिन्नेषु उत्कृष्टस्थितिबन्धश्चत्वारिंशत् ४० कोटीकोटिसागरोपमाणि भवति ॥५२३॥ संठाण-संहदीणं चरिमस्सोघं दुहोणमादि त्ति । अट्ठारस कोडिकोडी वियलाणं सुहुमतिण्हं च ॥१२४॥ हु १ अ१ सा०२० को । वा १ की १ सा. १८ को । कु १ अ १ सा. १६ को। सा १ ना १सा०१४ को० । नि० १ व १ सा. १२ को । स १ व १ सा०१० को० । वि १ ति १ च १ सा० १८ को० । सू १ असा १सा० १८ को० । स्थिति बोस कोडाकोडी सागरप्रमाण है। मोहनीयकर्मकी उत्कृष्ट स्थिति सत्तर कोडाकोडी सागर प्रमाण है । आयुकर्मकी उत्कृष्ट स्थिति तेतीस सागरप्रमाण है ॥१२२।। विशेषार्थ-एक समयमें बँधनेवाले कर्मोंकी उत्कृष्ट स्थिति गाथामें बतलाये गये कालप्रमाण है अर्थात् उतने कालतक वह कर्म आत्माके साथ बँधा रहता है और क्रमशः अपना फल देकर झड़ता रहता है। अब कर्मोकी उत्तर प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिको छह गाथाओंसे बतलाते हैं दुःख अथात असातावदनाय एक, ज्ञानाबरणको पाँच, दर्शनावरणको नौ और अन्तरायकी पाँच; इन वीस प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध ओघ अर्थात् सामान्य मूलकों के समान तीस कोड़ाकोड़ी सागरप्रमाण है। सातावेदनीय, स्त्रीवेद, मनुष्यगति और मनुष्यगत्यानुपूर्वी; इन चार प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध उक्त प्रकृतियोंसे आधा अर्थात् पन्द्रह कोड़ा. कोडी सागर प्रमाण है। मिथ्यात्व दर्शनमोहनीयका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सत्तर कोडाकोडी सागरप्रमाण है और चारित्र मोहनीयका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध चालीस कोड़ाकोड़ी सागरप्रमाण है ॥१२३॥ छह संस्थान और छह संहननमें से अन्तका हुण्डकसंस्थान और सूपाटिकासंहनन इन दोनोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध मूलप्रकृतिके समान बीस कोड़ाकोड़ी सागर है । मध्यवर्ती चार १. गो० १.० १२८ । २. गो. क. १२९ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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