Book Title: Karmprakruti Author(s): Hiralal Shastri Publisher: Bharatiya GyanpithPage 85
________________ कर्मप्रकृति उपभोगः, तस्य विघ्नहेतुरुपभोगान्तरायः ४ । वीर्य शक्तिः सामर्थ्यम् । तस्य विघ्नहेतुर्वीयान्तरायः ५ । इति सर्वेषां कर्मणां उत्तरप्रकृतयः अष्टचत्वारिंशच्छतप्रमाः १४८ भवन्ति । उत्तरोत्तरप्रकृतिभेदा वाग्गोचरा न भवन्ति ॥१२॥ अथ नामोत्तरप्रकृतिध्वभेदविवक्षायामन्त वं दर्शयति देहे अविणाभावी बंधण संघाद इदि अबंधुदया। वण्णचउक्केभिण्णे गहिदे चत्तारि बंधुदये ॥१०३॥ देहे औदारिकादिपञ्चविधशरीरनामकर्मणि स्व-स्वबन्धनसंघातौ अविनाभाविनौ, इति कारणात् श्रबन्धोदयौ प्रकृती बन्धन-संघातौ न भवतः, तत्र त्र्युत्तरभेदभिन्ने नामकर्मण एतौ बन्धन-संघातौ पृथक प्रोक्ती इत्यर्थः । वर्णचतुष्के वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्शसामान्यचतुष्के अभिन्ने अभेदविवक्षायां एकैकस्मिन्नेव गृहीते सत्त्वादन्यत्र बन्धोदययोश्चतत्र एवं प्रकृतयो भवन्ति । शेषषोडशानां पृथक कथनं नास्तीत्यर्थः ॥१०३॥ . ताः का इति चेदाह वण्ण-रस-गंध-फासा चउ चउ इगि सत्त सम्ममिच्छत्तं । होति अबंधा बंधण पण पण संघाद सम्मत्तं ॥१०४॥ एताः अष्टाविंशतिप्रकृतयः प्रबन्धा बन्धरहिता भवन्ति, अतएव बन्धराशौ विंशत्यधिकशतप्रकृतयो १२० भवन्ति । ताः काः अष्टाविंशतिः २८ । वर्णचतुष्कं ४ [रसचतुष्कम् ४] एको गन्धः १ स्पर्शसप्तकं ७ इति षोडश १६ भवन्ति । मिच्छत्तं इति सम्म इति मीलित्वा एका सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृतिः, मिश्रप्रकृतिरित्यर्थः १ । 'बंधण पण' इति, औदारिकबन्धनं १ वैक्रियिकबन्धनं २ श्राहारकबन्धनं ३ तैजस बन्धनं ४ कार्मणबन्धनं ५ इति पञ्च बन्धनानि । 'पण संघाद' इति, औदारिकसंघातः १ वैक्रियिकसंघात: २ आहारक- . संघातः ३ तेजससंघातः ४ कामणसंघातः ५ इति पञ्च संघाताः। 'सम्मत्त' इति सम्यक्त्वप्रकृतिः एवं समुदिताः अष्टाविंशतिप्रकृतयः २८ अबन्धाः बन्धराशो न भवन्तीत्यर्थः ॥१०४॥ __अब नामकर्मकी उत्तर प्रकृतियों में अभेद-विवक्षासे कौन प्रकृति किसमें सम्मिलित हो सकती है यह दिखलाते हैं__शरीर नामकर्मके साथ अपना-अपना बन्धन और अपना-अपना संघात, ये दोनों कर्म अविनाभावी हैं अर्थात् ये दोनों शरीरके विना नहीं हो सकते । इस कारण पाँच बन्धन और पाँच संघात, ये दश प्रकृतियाँ बन्ध और उदय अवस्थामें अभेद विवक्षासे पृथक नहीं गिनी जातीं, किन्तु उनका शरीरनामकर्ममें ही अन्तर्भाव हो जाता है । तथा सामान्य वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श इन चारमें ही इनके उत्तर बीस भेद सम्मिलित हो जाते हैं अतएव अभेदकी अपेक्षा इनके भी बन्ध और उदय अवस्थामें चार ही भेद गिने जाते हैं ॥१०३।। __ अब ग्रन्थकार अबन्ध प्रकृतियोको अर्थात् जिनका बन्ध नहीं होता, उन प्रकृतियोंको गिनाते हैं चार वर्ण, चार रस, एक गन्ध, सात स्पर्श, सम्यग्मिथ्यात्व, सम्यक्त्वप्रकृति, पाँच बन्धन और पाँच संघात । ये अट्ठाईस अबन्ध प्रकृतियाँ हैं । अर्थात् इनके अतिरिक्त शेष एक सौ बीस प्रकृतियाँ बन्ध-योग्य होती हैं ।।१०४॥ १. गो० क० ३४ । २. ब मिच्छत्तं । Jain Education International For Personal & Private Use Only For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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