Book Title: Karmprakruti
Author(s): Hiralal Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

Previous | Next

Page 56
________________ प्रकृतिसमुत्कीर्त्तन स्पर्शनादीन्द्रियाणां स्थूलविषयेषु ज्ञानजननशक्तित्वात् सूक्ष्मार्थेषु परमाणुपु अन्तरितार्थेषु नरकस्वर्गपटलादिषु दूरार्थेषु मेर्वादिषु ज्ञानजननशक्तिर्न सम्भवतीत्यर्थः । अनेन मतिज्ञानस्वरूपं निवेदितम् । तत्कथम्भूतम् ? अनिन्द्रियेन्द्रियजम् - अनिन्द्रियं मनः, इन्द्रियाणि स्पर्शनादीनि पञ्च । एभ्यो जातं श्रनिन्द्रियेन्द्रियजम् । अनेन इन्द्रिय-मनसां मतिज्ञानोत्पत्तिकारणत्वं भणितमिति मतिज्ञानं षोढा कथितम् । पुनः प्रत्येकैकस्य मतिज्ञानस्य अवग्रहादयश्चत्वारो भेदा भवन्ति । तद्यथा— मानसोऽवग्रहः १ मानसीहा २ मानसोडवायः ३ मानसी धारणा ४ इति चत्वारः । एवं स्पर्शनेन्द्रियजाः श्रवग्रहादयश्वत्वारः ४ । रसनजाः अवग्रहादयश्वत्वारः ४ । घ्राणजाः अवग्रहादयश्चत्वारः ४ । चाक्षुषाः अवग्रहादयश्चत्वारः ४ | श्रोत्रजाः श्रवग्रहादयश्वत्वारः ४ । एवं मतिज्ञानभेदाश्चतुर्विंशतिः २४ भवन्ति । बहुः १ अबहुः २ बहुविधः ३ अबहुविधः ४ क्षिप्रः ५ अक्षिप्रः ६ अनिस्सृतः ७ निस्सृतः ८ अनुक्तः ९ उक्तः १० ध्रुवः १३ अध्रुवः १२ एतैर्द्वादशभिगुणिताश्चतुर्विंशतिः २४ मतिज्ञानस्य भेदाः अष्टाशीत्युत्तरद्विशतं २८८ भवन्ति । एते अष्टाशीत्यधिकद्विशतभेदाः २८८ अर्थस्य स्थिरस्थूलरूपस्य पदार्थस्य भवन्ति । व्यञ्जनस्य अव्यक्तवस्तुनः एकोऽवग्रहो भवति । स तु व्यञ्जनावग्रहः बह्नादिभिर्द्वादशभिः १२ गुणित: द्वादशप्रकारो भवति । स तु द्वादशात्मकः चक्षुरनिन्द्रियाभ्यां विना स्पर्शनरसनघ्राणश्रोत्रैश्चतुर्भिः ४ गुणितोऽष्टचत्वारिंशत् ४८ भेदा भवन्ति । एवं एकत्रीकृताः पट्त्रिंशदधिकत्रिशतभेदाः ३३६ मतिज्ञानस्य भवन्ति । मतिज्ञानमावृणोतीति 1 यात्रियतेऽनेन वेति मतिज्ञानावरणीयम् ॥३७ || अथ श्रुतज्ञानस्वरूपमाह अत्थादो अत्यंत रमुवर्लभं तं भणति सुदणाणं । आभिणिवोहियपुव्वं णिय मेहि सहज मुहं ॥ ३८ ॥ अर्थात् मतिज्ञानेन निश्चितार्थात् अर्थान्तरं तत्सम्बद्धं श्रन्यार्थं उपलभ्यमानं ज्ञायमानं श्रुतज्ञाना विशेषार्थ-स्थूल, वर्तमान योग्य क्षेत्र में अवस्थित पदार्थको अभिमुख कहते हैं । प्रत्येक इन्द्रियके निश्चित विषयको नियमित कहते हैं । इन दोनों प्रकार के पदार्थों का मन और इन्द्रियोंकी सहायतासे जो ज्ञान होता है उसे आभिनिबोधिक या मतिज्ञान कहते हैं । इस प्रकार पाँच इन्द्रिय और मनकी अपेक्षा उक्त ज्ञानके छह भेद होते हैं । इसमें भी प्रत्येक के अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा ये चार-चार भेद होते हैं । वस्तुके सामान्य ज्ञानको अवग्रह कहते हैं,जैसे कि यह मनुष्य है। इससे अधिक विशेष जानने की इच्छाको ईहा कहते हैं जैसे कि यह मनुष्य दक्षिणी है या उत्तरी । इसीके आकार-प्रकार एवं बोल-चाल आदिके द्वारा निश्चय करनेको अवाय कहते हैं, जैसे कि उक्त मनुष्य दक्षिणी ही है। और आगे कालान्तर में इसे नहीं भूलनेको धारणा कहते हैं । पुनः उनके बहु, बहुविध आदि बारह प्रकार के पदार्थों की अपेक्षा (२४४१२ = २८ ) दो सौ अठासी भेद हो जाते हैं । ये सब अर्थावग्रहके भेद हैं । व्यक्त पदार्थ के ज्ञानको अर्थात्रग्रह कहते हैं । अव्यक्त पदार्थके जाननेको व्यंजनावग्रह कहते हैं । यह मन और इन्द्रियके बिना शेष चार इन्द्रियोंसे केवल अवग्रह रूप ही होता है और बहुआदि बारह पदार्थों की अपेक्षा उसके ( ४x १२ = ४८ ) अड़तालीस भेद होते हैं। इन्हें उपर्युक्त दो सौ अठासी भेदोंमें जोड़ देनेपर ( २८+ ४८ = ३३६ ) तीन सौ छत्तीस भेद ज्ञान हो जाते हैं । १. श्रा 'सत्थजं' इति पाठ: । २. पञ्चसं० १, १२२ । गो० जी० ३१४ । 1. ब पाठोऽयं नास्ति । २१ Jain Education International. For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198