Book Title: Karmprakruti
Author(s): Hiralal Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

Previous | Next

Page 50
________________ प्रकृतिसमुत्कीर्त्तन णाणस्स दंसणस्स य आवरणं वेयणीय मोहणियं । १ आउ णामं गोदंतरायमिदि पठिदमिदि सिद्धं ॥२१॥ ज्ञानावरणीयं १ दर्शनावरणीयं २ वेदनीयं ३ मोहनीयं ४ आयु: ५ नाम ६ गोत्रं ७ अन्तरायः ८ इति पूर्वोपाठक्रम एवं सिद्धः । तेषां निरुक्तिः कथ्यते – ज्ञानमावृणोतीति ज्ञानावरणीयम् । तस्य का प्रकृतिः ? ज्ञानप्रच्छादनता । किंवत् ? देवतामुखवस्त्रवत् । दर्शनमावृणोतीति दर्शनावरणीयम् । तस्य का प्रकृति: ? दर्शनप्रच्छादनता । किं वत् ? राजद्वारप्रतिहारवत् । राजद्वारे प्रतिनियुक्तप्रतिहारवत् । वेदयतीति वेदनीयम् । तस्य का प्रकृतिः ? सुखदुः खोत्पादनता । किंवत् ? मधुलिप्तासिधारावत् । मोहयतीति मोहनीयम् । तस्य का प्रकृतिः ? मोहोत्पादनता । किंवत् ? मद्यधत्तूरमदनकोद्रववत् । भवधारणाय एति गच्छतीत्यायुः । तस्य का प्रकृति: ? भवधारणता । किंवत् ? श्रृङ्खलाहडिवत् । नाना मिनोतीति नाम । तस्य का प्रकृति: ? नर-नारकादिनानाविधकरणता । किंवत् ? चित्रकःरकवत् । उच्चं नीचं गमयतीति गोत्रम् । तस्य का प्रकृतिः ? उच्चत्वनीचत्वप्रापकता किंवत् ? कुम्भकारवत् । दातृ-पात्रयोरन्तरमेतस्यन्तशयः । तस्य का प्रकृति: ? विघ्नकरणता । किंवत् ? भाण्डागारिकवत् ॥२१॥ जीव सेक्क्के कम्मपएसा हु अंतपरिहीणा । २ होंति घणणिविडभूओ संबधो होइ णायव्व ॥२२॥ जीवराशिरनन्तः । प्रत्येकमेकैकस्य जीवस्यासख्याताः प्रदेशाः । आत्मन एकैकस्मिन् प्रदेशे कर्मप्रदेश : हु स्फुटं श्रन्तपरिहीना इति अनन्ता भवन्ति । एतेषां श्रात्म-कर्मप्रदेशानां सम्यक् बन्धो भवति सम्बन्धः । किंलक्षणो ज्ञातव्यः ? घननिविडभूतः - घनवत् लोहमुद्गरवत् निविडभूतः दृढतर इत्यर्थः ॥ २२ ॥ अथ अणाईभूओ वो जीवस्स विविम्मेण । तरसोदएण जायइ भावो पुण राय - दोसमओं ||२३|| १५ जीवस्य विविधकर्मणा सह अनादिभूतो बन्धोऽस्ति । तस्य द्रव्यकर्मबन्धस्योदयेन जीवस्य पुनः रागद्वेषमयः भावः परिणामः भावकर्म इति यावत् जायते उत्पद्यते ॥२३॥ भावार्थ--- जब तक जीवके मोहकर्मका सद्भाव रहता है, तब तक ही वेदनीकर्म जीवको सुख-दुःखका अनुभव कराकर उसे अपने ज्ञानादिगुणों में उपयुक्त नहीं रहने देता, प्रत्युत पर पदार्थोंमें सुख-दुःख की कल्पना उत्पन्न कर उन्हें सुखी या दुःखी बनाता रहता है इस कारण उसका नाम-निर्देश मोहकर्म के पूर्व घातिया कर्मोंके बीच में किया गया है । इस प्रकार से कर्मोंका जो पाठक्रम सिद्ध हुआ उसका ग्रन्थकार उपसंहार करते हैंज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय, इस प्रकार से आगम में जो कर्मोंके पाठका क्रम है वही युक्ति-पूर्वक सिद्ध होता है ||२१|| ग्रन्थकार जीवके प्रदेशोंके साथ कर्मके प्रदेशोंके सम्बन्ध होनेका निरूपण कहते हैं जीवके एक-एक प्रदेश के ऊपर कर्मोंके अन्त परिहीन अर्थात् अनन्त प्रदेश अत्यन्त सघन प्रगाढ़ रूपसे अवस्थित होकर सम्बन्धको प्राप्त हो रहे हैं, ऐसा जानना चाहिए ||२२|| Jain Education International. अब ग्रन्थकार जीव और कर्मके अनादिकालीन सम्बन्धका निरूपण करते हैंइस जीवका नाना प्रकार के कर्मों के साथ अनादिकालीन सम्बन्ध है । पुनः उन कर्मों के उदयसे जीवके राग-द्वेषमय भाव उत्पन्न होता है ||३३|| १. गो० क० २० । २. भावसं० ३२५ । ३. क कम्मेहिं । ४. भावसं० ३२६ । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198