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जीवन विज्ञान : स्वरूप और आवश्यकता
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उनकी निष्पत्ति न आए तो चिंता का विषय हो सकता है। बीज बोने पर भी फसल न हो तो किसान चिंतित हो जाता है पर बीज बोएं ही नहीं और फसल की आशा करें, यह वज्र - मूर्खता है।
जीवन विज्ञान की परिकल्पना
जीवन विज्ञान की परिकल्पना यही है कि शिक्षा प्रणाली संतुलित हो । जीवन विज्ञान का एक अर्थ है- संतुलित शिक्षा प्रणाली | संतुलित का अभिप्राय है कि जैसे शारीरिक विकास और बौद्धिक विकास का प्रयत्न किया जा रहा है, वैसा ही प्रयत्न मानसिक विकास और भावनात्मक विकास के लिए हो। ऐसा होने पर ही शिक्षा-प्रणाली संतुलित हो सकेगी।
प्राणधारा का संतुलन
आज संतुलन का प्रश्न बहुत महत्व का है। उस संतुलन को प्रस्थापित करने वाले तथ्य कौन-कौन से हैं, इस पर हम कुछ विमर्श करें।
पहला तथ्य है - प्राणधारा का संतुलन ।
मानसिक और भावनात्मक विकास के लिए प्राणधारा का विकास और संतुलन आवश्यक है। प्राण के दो प्रवाह हैं- इड़ा और पिंगला । ये प्राचीन योगशास्त्रीय नाम हैं। आज के शरीरशास्त्रीय भाषा में एक का नाम है- पेरा सिंपेथेटिक नर्वस सिस्टम और दूसरे का नाम है- सिंपेथेटिक नर्वस सिस्टम। प्राण के इन दोनों प्रवाहों में जब तक संतुलन नहीं होता तब तक हम जिस प्रकार के विद्यार्थी की परिकल्पना करते हैं, वह परिकल्पना सार्थक नहीं होगी। जब प्राण का एक प्रवाह अधिक सक्रिय हो जाता है तो उद्दंडता और उच्छृंखलता पनपती है, हिंसक और तोड़फोड़ की वृत्ति बढ़ती है। यह सारा कार्य दायीं प्राणधारा की सक्रियता का परिणाम है। यदि प्राणधारा का बायां प्रवाह सक्रिय होता है तो व्यक्ति में हीनभावना का विकास होता है, भय की वृत्ति होती है, दुर्बलता आती है। दोनों में संतुलन अपेक्षित है। जब यह संतुलन सधता है तब संतुलित व्यक्तित्व का निर्माण होता है, न हीनभावना पनपती है, न उद्दण्डता और अनुशासनहीनता आती है, न भय की वृत्ति प्रबल बनती है।
जैविक संतुलन
आज के मेडिकल साइन्स ने मस्तिष्कीय खोजों द्वारा यह प्रस्थापित किया है कि आदमी के मस्तिष्क का बायां हिस्सा स्कूलीय अध्ययन के लिए
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