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जीवन विज्ञान : सिद्धान्त और प्रयोग शिक्षा-प्रणाली का अनिवार्य अंग होना चाहिए ।
हमारी शिक्षा ओब्जेक्टिव है । आज शिक्षा ज्ञेय की होती है, ज्ञाता की नहीं होती । हम ज्ञेय को बहुत जानते हैं, पर ज्ञाता को नहीं जानते । जानने वाले को हम नहीं जानते, जो जाना जाता है उसे बहुत जानते हैं ।
आदमी के सामने सबसे पहला प्रश्न है- भोजन और शरीर का । शिक्षा का ध्यान इस पर सबसे अधिक केन्द्रित हुआ । उसने मनुष्य का यह रास्ता प्रशस्त किया कि प्रत्येक आदमी आजीविका प्राप्त कर सके, जीवन-यात्रा का निर्वाह कर सके, शरीर को पोषण दे सके, भोजन की सामग्री जुटा सके । किन्तु मनुष्य शरीर मात्र नहीं है । उसके पास शरीर है, प्राण है, इन्द्रियां हैं, भाषा है, मन है, बुद्धि है । इतना तो दृश्य है । अदृश्य इससे बहुत बड़ा है । उसे हम एक बार छोड़ दें, यह मानकर कि अदृश्य पर किसी का विश्वास जमता है और किसी का नहीं भी जमता. किन्त दश्य जगत भी कम छोटा नहीं है । मन की सत्ता बहुत बड़ी है । बुद्धि का साम्राज्य बहुत विशाल है । इन्द्रियों की शक्ति बहुत विपुल है । भाषा और प्राण का बल भी अद्भुत है । ये सब हमारे सामने हैं । तो क्या शिक्षा मात्र इतनी ही है कि जिससे शरीर को पोषण मिले और उसकी आवश्यकताएं पूरी हो जायें ? शिक्षा का क्षेत्र इतना सीमित नहीं है । शिक्षाविदों ने इस पर ध्यान भी दिया है । उन्होंने अपनी शिक्षा की व्यवस्था में शारीरिक विकास के साथ-साथ मानसिक और बौद्धिक विकास की भी व्यवस्था की है। उसकी पूरी समायोजना है । वे चाहते हैं एक बच्चे का शारीरिक विकास भी हो, मानसिक विकास भी हो और बौद्धिक विकास भी हो । इन तीनों की पूरी व्यवस्था है । इससे आगे वे व्यवस्था कर भी नहीं सकते । कैसे करते ? जो शिक्षाशास्त्री हैं, वे भी तो उसी दुनिया के प्राणी हैं, जिस दुनिया में विद्याथी जीते हैं, अभिभावक जीते हैं और दृश्य-जगत् की पूरी कल्पना के साथ जीते हैं । दृश्य-जगत् से परे उनकी कोई योजना नहीं हो सकती, कोई व्यवस्था नहीं हो सकती और वे कर भी नहीं सकते । जीवन-यात्रा के लिए यह मान लिया गया है कि शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक विकास पर्याप्त है । यह मानना भ्रांतिपूर्ण है, अधूरा है, पर मान लिया गया है। प्राणी का कर्तृत्व
बड़ा आश्चर्य होता है कि जो मूल है वह बेचारा दु:ख पा रहा है, और
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