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शिक्षा का नया आयाम : जीवन विज्ञान
१०३ पड़ेगा और ये दोनों आयाम परस्पर पूरक होंगे।
नैतिक शिक्षण को अलग विषय के रूप में थोपा जाना चाहिए। वह पाठ्यक्रम का ही एक अंग होना चाहिए। प्रायोगिक प्रशिक्षण के लिए शिविर-पद्धति का उपयोग किया जा सकता है। प्रायोगिक प्रशिक्षण में निर्माण होता है उतना थियोरिटिकल शिक्षा से नहीं हो सकता। जीवन विज्ञान : कमी की सम्पूर्ति
__ हम यह मानते हैं कि वर्तमान शिक्षा-प्रणाली ने अनेक अच्छे-अच्छे व्यक्तित्व दिये हैं। साइकोलोजी, टेक्नोलोजी, इन्जीनियरिंग आदि के क्षेत्र में अनेक विशेषज्ञ सामने आए हैं। आज जितनी कुशलता प्रकट हुई है उतनी शताब्दियों में नहीं हुई। इस दृष्टि से शिक्षा को दोषपूर्ण नहीं माना जा सकता, पर इसमें एक कमी है। वह है जीवन-विज्ञान की शिक्षा का अभाव। यदि इसे शिक्षा के साथ जोड़ा जाए तो शिक्षा-प्रणाली सब दृष्टियों से पूरी हो जायेगी।
शिक्षा में व्याप्त असन्तोष को मिटाने के लिए व्यक्तिगत धरातल पर चेतना को जगाने के कुछ उपक्रम किये जाएं। आज शिक्षा वस्तुनिष्ठ बन रही है, उसे स्वनिष्ठ बनाया जाए। दूसरे शब्दों में, चरित्रनिष्ठ बनाया जाये।
जिन देशों ने आंतरिक समस्याओं पर ध्यान दिया वहां कार्य-दक्षता में आश्चर्यजनक वृद्धि हुई है। इस दक्षता के पीछे कोरी पुस्तकीय शिक्षा ही नहीं रही है, ध्यान का भी महत्त्वपूर्ण हाथ रहा है। जापान में जैन-संप्रदाय के नाम से ध्यान का एक संप्रदाय चलता है। वहां केवल छात्रों को ही नहीं, सैनिकों को भी ध्यान का प्रशिक्षण दिया जाता है। इसीलिए हमारे यहां जो कार्य छह घण्टे में किया जाता है, वह वहां तीन घण्टे में हो जाता है। यह शिक्षा का प्रायोगिक रूप है। यह सिद्ध हो चुका है कि पीनियल, थायराइड, पिच्यूटरी आदि ग्रन्थियां मनुष्य के चरित्र को प्रभावित करती हैं। दस-बारह वर्ष तक के बच्चों की पीनियल ग्रन्थि बहुत सक्रिय होती है। इसी से उनके जीवन में पवित्रता रहती है ज्यों-ज्यों वे बड़े होते हैं, उनकी यह ग्रन्थि निष्क्रिय होती जाती है। यदि प्रायोगिक स्तर पर उस ग्रंथि को सक्रिय बनाया जा सके तो उन्हें बहुत पवित्र, अनुशासित रखा जा सकता है। इसके लिये आवश्यक है कि छात्रों को न केवल शरीर-शास्त्र का अध्ययन ही कराया जाये, अपितु उनके ऐसे साप्ताहिक शिविर लगाये जाएं, जिनमें उनकी ग्रंथियों को सक्रिय करने के लिए प्रायोगिक स्तर पर काम किया जा सके। इससे एक नयी पीढ़ी का निर्माण होगा। सब लोग चाहते हैं, अनुशासनहीनता न हो। पर बिना प्रयोगों के
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