Book Title: Jivan Vigyana Siddhanta aur Prayoga
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

View full book text
Previous | Next

Page 158
________________ संवेग-संवेद और नियन्त्रण की पद्धति असंतुलित संवेग : आपराधिक वृत्तियां मनुष्य में मौलिक मनोवृत्तियां और संवेग होते हैं। संवेग जीवन को बहुत प्रभावित करते हैं। इसलिए उन पर अनुशासन करना विकासशील प्राणी के लिए बहुत आवश्यक है। विद्यार्थी के जीवन में इसकी जटिल समस्या संक्रमण-काल में आती है। जब दो अवस्थाओं का संधिकाल होता है तब एक खतरनाक मोड़ उपस्थित होता है। आठ-नौ वर्ष की अवस्था, ग्यारह-बारह वर्ष की अवस्था और सतरह-अठारह वर्ष की अवस्था- ये दो-तीन ऐसे मोड़ है जहां अत्यन्त सावधानी और सजगता की जरूरत रहती है। शिशु किशोर बनता है। उसकी मांसपेशियां शक्तिशाली बनती है। जब मांसपेशियां शक्तिशाली बनती हैं तब शरीर में शक्ति का प्रारम्भ होता है। यह किशोरावस्था की दहलीज है। इस पर पैर रखते ही कुछ शारीरिक परिवर्तन होते हैं, क्रियाएं बदलती है। यौवन के बीज अंकुरित होने लगते हैं और शरीर में उभार आता है। इस अवस्था में भय, क्रोध, मान, अपमान का बोध, सत्कार और तिरस्कार की अनुभूति- ये सारे संवेग प्रबल बनते हैं। यदि इस अवस्था के संवेगों को ठीक ढंग से संभाला जाए, उन्हें अनुशासित किया जाए तो जीवन की गाड़ी ठीक पटरी पर चल सकती है। अन्यथा गाड़ी पटरी से नीचे उतर जाती है। ये संतुलित संवेग हमारे ग्रंथितन्त्र और नाड़ीतन्त्र-दोनों को प्रभावित करते हैं। जब ये दोनों तन्त्र संतुलित रहते हैं तब जीवन का क्रम उचित ढंग से चलता है। इसमें विकार होत ही जीवन गड़बड़ा जाता है। विकार का मूल कारण है- असंतुलित संवेग। ये विकारों को उत्पन्न करते हैं। एक बच्चा चिडचिड़े स्वभाव का है, अन्यमनस्क है। इसका कारण क्या है ? कारण हैअसंतुलित संवेग। इसके फलस्वरूप बालक में विचित्र प्रकार की जटिल आदतें बन जाती हैं, कामुकता का उभार अधिक हो जाता है, वह अपराध में फंस जाता है। आज बाल-मनोविज्ञान पर काफी कार्य हुआ है। बाल अवस्था में जो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236