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विधायक भाव
भोजन करते हैं, भूख मिटती है। पानी पीते हैं, प्यास बुझती है। हमें सुख का अनुभव होता है। सुख रोटी से मिला, पानी से मिला, और कहीं से आया या हमारे भीतर से निकला ? इस प्रश्न की गहराई में जाने पर ज्ञात होगा कि भूख मिट जाने या प्यास बुझ जाने पर भी सुख नहीं मिलता। इसलिए रोटी खाने और सुख के मिलने में अनुबंध नहीं है। उनमें व्याप्ति नहीं है कि एक के होने पर दूसरा हो ही। पदार्थ के मिल जाने पर भी सुख नहीं होता और न मिलने पर भी सुख हो सकता है। पदार्थ और सुख में कोई व्याप्ति नहीं है, कोई निश्चित नियम नहीं है कि ऐसा होने पर ऐसा होता ही है और न होने पर नहीं होता। एक आदमी बहुत संपन्न है। पास में करोड़ों का धन है, पर स्वास्थ्य ठीक नहीं है। वह दुःख ही भोगता है।
घटनाओं के विश्लेषण से ज्ञात होता है कि पदार्थ का सुख के साथ अनुबंध नहीं है। सुख का संबंध हमारे संवेदन के साथ है। विधायक भाव जागे
__ एक दृष्टि से सुख-दुःख की यह परिभाषा की जा सकती है कि विधायक भाव का अर्थ है सुख और निषेधात्मक भाव का अर्थ है दु:ख। भय, अहंकार आदि निषेधात्मक भाव है। ये सारे दु:ख हैं। करुणा, प्रेम, सहृदयता आदि विधायक भाव हैं। ये सारे सुख हैं। वह समाज और व्यक्ति, विकासशील बनता है, जिसे विधायक भाव उपलब्ध है। जिसमें निषेधात्मक भाव है, वह समाज या व्यक्ति कभी विकास नहीं कर सकता। उसमें सदा निराशा बनी रहती है। वैसे व्यक्ति उदासी, निराशा और बैचेनी से ग्रस्त होते हैं। वे व्यक्ति प्रत्येक बात में कमी निकालेंगे, बुराई खोजेंगे।
विधायक दृष्टिकोण से संपन्न व्यक्ति को बुराई नहीं दीखती और निषेधात्मक दृष्टि वाले व्यक्ति की अच्छाई का पता नहीं चलता। जहां निषेधात्मक दृष्टि
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