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मूल्यपरक शिक्षा : सिद्धान्त और प्रयोग
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अपनी चरम सीमा पर हैं, किन्तु संवेग - नियन्त्रण अभी बाल्य अवस्था में ही है। आज के विश्वविद्यालयों में विद्या की जो शाखाएं हैं, वे अनगिन हैं, किन्तु संवेग - नियन्त्रण की विद्या को भाग्य भरोसे छोड़ दिया गया है। यदि हम प्रतिशत में बांटे तो पचास प्रतिशत मूल्य है बौद्धिक विकास का और पचास प्रतिशत मूल्य है संवेग - नियन्त्रण का । बौद्धिक विकास ने अपना पूरा मूल्य पा लिया है। यदि भावनात्मक विकास सध जाता है तो अच्छे समाज के निर्माण में समय नहीं लगता। जीवन-विज्ञान-पद्धति की शिक्षा के द्वारा जिस समाज का निर्माण होगा, उसमें न उत्पीड़न होगा, न जातिवाद की क्रूरता होगी, न छुआछूत होगा और न शोषण की समस्याएं होंगी।
स्वच्छ समाज की परिकल्पना के लिए अणुव्रत आन्दोलन ने जो प्रारूप प्रदान किया है, वह जीवन - विज्ञान के सन्दर्भ में एक विनम्र प्रयत्न है, नया दृष्टिकोण है। जिन लोगों ने केवल समाज - व्यवस्था को बदलने का प्रयत्न किया, उनका अनुभव है - व्यवस्था के बदल जाने पर भी आदमी नहीं बदलता ।
आज वहां समाज-व्यवस्था बदली है पर आदमी का हृदय नहीं बदला है, इसीलिए वहां अनेक प्रकार के आर्थिक घोटाले होते हैं जघन्य अपराध होते हैं। । तब तक हृदय नहीं बदलता, जब तक संवेग-परिष्कार की भावना नहीं जागती है। संवेग - परिष्कार के बिना बुराइयों से नहीं बचा जा सकता ।
यदि समाज को स्वच्छ और अच्छा बनाना है, व्यसन मुक्त और अपराध मुक्त बनाना है तो शिक्षा के साथ संवेग - परिष्कार की बात को जोड़ना होगा। इसके सिवाय कोई विकल्प नहीं है । आज विद्यार्थी की अपराधी मनोवृत्ति से समाज के लोग चिन्तित हो जाते हैं। केवल बौद्धिक विकास के कारण विद्यार्थी शस्त्र जैसे बन जाते हैं। धार तेज है। जब धार तेज होगी तो वह काटेगी ही। जब शस्त्र तेज होगा तो वह अपना काम करेगा ही। एक बात है, शस्त्र बने, धार तेज हो, कोई चिन्ता नहीं है, पर उस पर खोल होना चाहिए। खड्ग हो और म्यांन न हो तो वह स्वयं को ही काट देता है। बौद्धिक विकास बहुत जरूरी है, पर वह काटे नहीं। नैतिकता का उस पर खोल रहे, नियन्त्रण की क्षमता बढ़े। इस संतुलन की हम कल्पना करें। वह सिद्धान्त और प्रयोग के समन्वय से ही संभव है।
जीव-विज्ञान इसकी पूर्ति का उपक्रम है। इससे शिक्षा का क्षेत्र तेजस्वी बनेगा और नए व्यक्तित्वों का निर्माण होगा।
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