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जीवन विज्ञान : सिद्धान्त और प्रयोग
• स्वस्थ समाज रचना के लिये स्वस्थ व्यक्तित्व के निर्माण की अपेक्षा होती है । व्यक्तित्व की समग्रता केवल बौद्धिक विकास में नहीं है । उसके लिये शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक विकास भी जरूरी है ।
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• अंतःस्रावी ग्रन्थियों के स्राव व्यक्तित्व का सन्तुलन बनाए रखते हैं मानसिक और भावनात्मक असंतुलन के कारण उन ग्रन्थियों के स्राव असन्तुलित हो जाते हैं। इस असन्तुलन की स्थिति में स्वस्थ समाज की संरचना नहीं हो सकती । पाठ्यक्रम में मानसिक और भावनात्मक सन्तुलन के सूत्रों का समावेश नहीं है ।
० विद्यार्थी को जितना पढ़ाया जा रहा है उतना आवश्यक नहीं है और जो आवश्यक है वह पढ़ाया नहीं जा रहा है। आवश्यकता की कसौटी है जीवन से सम्बद्धता और समाज से प्रतिबद्धता । श्रम और चरित्र का जीवन से सीधा सम्बन्ध है । इतिहास और भूगोल आदि का जीवन से सीधा सम्बन्ध नहीं है। एक छोटे विद्यार्थी को जितना इतिहास और भूगोल पढ़ाया जाता है उतना चरित्र या व्यक्तित्व निर्माण के बारे में नहीं पढ़ाया जाता। शिक्षक की विवशता है कि वह पाठ्यक्रम से हट कर पढ़ा नहीं सकता अथवा उसके पास अतिरिक्त समय नहीं है ।
० प्रत्येक व्यक्ति आनन्द या मस्ती का जीवन जीना चाहता है । शारीरिक श्रम से शारीरिक तनाव (फिजिकल टेन्सन), मानसिक श्रम से मानसिक तनाव (मेन्टल टेन्सन) और संवेद से भावनात्मक तनाव (इमोशनल टेन्सन) पैदा होते हैं । ये तनाव आनंद या मस्ती को काफूर कर देते हैं। आनंद अपने आपको भूलाए बिना, चिन्ता और चिन्तन से छुट्टी पाए बिना उपलब्ध नहीं हो सकता। इसी समस्या के आधार पर विद्यार्थियों में मादक वस्तुओं के सेवन की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है । यदि इसका I विकल्प नहीं दिया गया तो मानसिक तनाव से ग्रस्त रहने वाला विद्यार्थी मादक वस्तुओं से बच सके, यह आज की स्थिति में कठिन लगता है ।
• सामाजिक जीवन व्यवहार में नैतिक मूल्यों के विपरीत प्रवृत्तियां देखने को मिलती हैं। एक विद्यार्थी विद्यालय में ईमानदारी का पाठ पढ़ता है और उसके बाहर बेईमानी की घटनाएं देखता है। इस स्थिति में शिक्षा के क्षेत्र में किए जाने वाले मूल्य - विकास के प्रयत्न कैसे सफल हो सकते हैं ?
० परिस्थितियों, निमित्तों और समाधानों पर ध्यान दिया जा रहा है पर आंतरिक परिवर्तन या हृदय परिवर्तन की विधियों पर ध्यान नहीं दिया जा रहा है ।
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