________________
शिक्षा और मुक्ति की अवधारणा
१३१ संवेदनाएं हैं उनका अतिरेक भी समस्याएं पैदा करता है और समाज में अनेक उलझनें उत्पन्न करता है। शिक्षा का यह महत्त्वपूर्ण कार्य है कि वह संवेदनाओं के अतिरेक से व्यक्ति को मुक्ति दिलाए।
मुक्ति का चौथा संदर्भ है-धारणा और संस्कार से मुक्ति। व्यक्ति धारणाओं और अर्जित संस्कारों के कारण दु:ख पाता है। शिक्षा का कार्य है कि वह इनसे मुक्ति दिलाए।
मुक्ति का पांचवां संदर्भ है-निषेधात्मक भावों से मुक्ति। व्यक्ति का नेगेटिव एटिट्यूड समस्या पैदा करता है। इससे मुक्त होना भी बहुत आवश्यक है।
इन पांच संदर्थों में मुक्ति को देखने पर ‘सा विद्या या विमुक्तये' का सूत्र बहुत स्पष्ट हो जाता है। वास्तव में विद्या वही होती है, जो मुक्ति के लिए होती है, जिससे मुक्ति सधती है। हम कसौटी करें और देखें कि क्या आज की शिक्षा से ये पांचों संदर्भ सधते हैं ? क्या वास्तव में अज्ञान आदि से मुक्ति मिलती है ? यदि अज्ञान आदि से मुक्ति मिलती है तो वह शिक्षा परिपूर्ण है और यदि नहीं मिलती है तो उसमें कुछ जोड़ना शेष रह जाता है। जीवन-विज्ञान की पूरी कल्पना इन संदर्भो के परिप्रेक्ष्य में की गई है। जिन-जिन संदर्भो में मुक्ति की बात सोच सकते हैं, वे बातें शिक्षा के द्वारा फलित होनी चाहिए। आज की समस्या
आज शिक्षा के द्वारा अज्ञान की मुक्ति अवश्य हो रही है किंतु संवेग के अतिरेक से मुक्ति आदि की बातें शिक्षा से जुड़ी हुई न हों, ऐसा प्रतीत होता है। धारणा यही है कि यह बात धर्म के क्षेत्र की है, शिक्षा के क्षेत्र की नहीं है। यह धारणा अस्वाभाविक भी नहीं है, क्योंकि धर्म का मूल अर्थ ही है संवेगों पर नियन्त्रण पाना। यह धर्म के मंच का काम होना चाहिए। शिक्षा क्षेत्र का यह कार्य क्यों होना चाहिए? ऐसा सोचा जा सकता है पर वर्तमान परिस्थिति में धर्म की भी समस्या है और वह यह है कि धर्म का स्थान मुख्यतः सम्प्रदाय ने ले लिया है। इसलिए साम्प्रदायिक वातावरण में धर्म के द्वारा संवेग-नियंत्रण की अपेक्षा रखना निराशा की बात है।
एक स्थिति यह है कि आज का विद्यार्थी दिन में इतना व्यस्त रहता है कि उठते-बैठते ही वह विद्यालय जाने की बात सोचता है और वहां से लौटने पर गृह-कार्य (होम वर्क) में निमग्न हो जाता है। कभी-कभी ऐसा होता है कि एक घर में रहते हुए भी पिता-पुत्र नहीं मिल पाते। आज सामाजिक वातावरण और
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org