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शिक्षा और मुक्ति की अवधारणा
१३३ वह शिक्षा-प्रणाली बहुत काम की नहीं होती। फेरो ने ठीक ही लिखा है-'साक्षर व्यक्ति केवल सरकार का ईंधन बनता है।' आज की शिक्षा ईंधन मात्र तैयार कर रही है, ज्योति तैयार नहीं करती। ज्योति और ईंधन एक बात नहीं है। ईंधन तैयार करना बहुत बड़ी बात नहीं हैं। बड़ी बात है ज्योति प्रज्वलित करना। अज्ञान : भारतीय दर्शन की अवधारणा
आज समूचे विश्व में बहुत क्रांतदृष्टि से सोचा जा रहा है कि शिक्षा में क्या परिवर्तन होना चाहिए। जिस शिक्षा से समाज में, व्यवस्थाओं में परिवर्तन नहीं आता, संकट कम नहीं होता, समाज का उत्पीड़न कम नहीं होता, उस शिक्षा को भारतीय दर्शन में अशिक्षा और उस ज्ञान को अज्ञान माना है। भारत की प्रत्येक धर्म-परम्परा में यह स्वर समान रुप से मिलेगा कि जिससे संयम की शक्ति और ज्ञान की शक्ति नहीं बढ़ती, वह ज्ञान अज्ञान है। जिसमें त्याग और संयम नहीं है, वह पडित नहीं, बाल है।
जैन ग्रंथों में 'बाल' और 'पडित'-ये दो शब्द प्रचलित हैं। बाल तीन प्रकार के होते हैं। एक बाल होता है अवस्था से, दूसरा बाल होता है अज्ञान से और तीसरा बाल होता है असंयम से। जिसमें त्याग की क्षमता नहीं है, वह सत्तर वर्ष का हो जाने पर भी 'बाल' कहा जाएगा। जिसमें त्याग की क्षमता है,अस्वीकार की क्षमता है, बलिदान की क्षमता है, वह चाहे बीस वर्ष का ही हो फिर भी उसे पडित कहा जाएगा, बाल नहीं कहा जाएगा। गीता में पडित उसे कहा है, जिसके सारे समारम्भ वर्जित हो गए हैं। जैन आगम सूत्रकृतांग में एक प्रश्न आया-'बाल' और 'पडित' किसे कहा जाए ? सूत्रकार ने उत्तर दिया- 'अविरइं पडुच्च बालेत्ति आह, विरई पडुच्च पडिएत्ति आह'- जिसमें अविरति है, अपनी इच्छाओं पर नियंत्रण करने की क्षमता नहीं, वह 'बाल' है। जिसमें विरति है, अपनी इच्छाओं पर नियन्त्रण करने की क्षमता है, वह 'पडित' है। इच्छाओं पर नियंत्रण
इच्छा प्राणीमात्र का असाधारण गुण है, विशिष्ट गुण है। जिसमें इच्छा नहीं होती, वह प्राणी नहीं होता। यह प्राणी और अप्राणी की भेद-रेखा है। इच्छा पैदा होना एक बात है ही और किस इच्छा को स्वीकार करना, किस इच्छा को अस्वीकार करना, यह कांट-छांट मनुष्य ही कर सकता है। अन्य प्राणी ऐसा नहीं कर सकते। मनुष्य की विवेक-चेतना जागृत होती है, इसलिए वह इच्छा की कांट-छांट कर सकता है। वह हर इच्छा को स्वीकार नहीं करता। यदि वह प्रत्येक
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