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शिक्षा और नैतिकता
समाज के साथ नैतिकता का प्रश्न अनिवार्यत: जुड़ा हुआ है। यदि समाज में परस्परता और नैतिकता न हो तो समाज भयंकर समाज बन जाता है। जिस समाज में एक दूसरे के प्रति अच्छा व्यवहार होता है, वह कल्याणकारी समाज बन जाता है, सबका स्वप्न है कि कल्याणकारी समाज का निर्माण हो। पर नैतिकता के बिना यह संभव नहीं है। नैतिकता का प्रश्न अपने आप में बहुत जटिल है। इसकी अनेक दार्शनिक चर्चाएं हुई हैं, आचार-संहिताएं बनी हैं और अनेक परिभाषाएं हुई हैं।
नैतिकता के आधार
कांट ने नैतिकता के तीन आधार माने हैं
१. निरपेक्ष मूल्यों में आस्था
२. मरणोपरान्त जीवन में आस्था
३. ईश्वरीय आस्था
नैतिकता का सापेक्ष मूल्य नहीं है। उसका निरपेक्ष मूल्य है। कांट ने इसका विस्तार से प्रतिपादन किया है। मरणोपरान्त जीवन में आस्था होती है तो नैतिकता को बल मिलता है | जब आदमी जान लेता है कि मरने के बाद भी जीवन रहता है, किए हुए कर्मों का फल भुगतना होता है, तो जीवन में नैतिकता अंकुरित होती है।
ईश्वरीय आस्था भी बहुत मूल्यवान् है। जिसकी ऐसी सत्ता में आस्था हो, जो परमसत्ता एवं विशुद्ध हो, वहां से नैतिकता फलित होती है।
नैतिकता का दूसरा क्रम राष्ट्र के साथ जुड़ा हुआ है। जब व्यक्ति में राष्ट्र के प्रति गहरा आकर्षण पैदा हो जाता है तब वह राष्ट्र के प्रतिकूल कोई आचरण करना. नहीं चाहता। उस स्थिति में नैतिकता विकसित होती है।
नैतिकता के स्रोत
शिक्षा के क्षेत्र में भी नैतिकता की काफी चर्चा होती है। प्रत्येक व्यक्ति में निरपेक्ष मूल्यों की आस्था पैदा की जा सके, ईश्वर में आस्था पैदा की जा सके, यह अपेक्षित है। पर विभिन्न प्रकार के लोग होते हैं। प्रत्येक व्यक्ति अपने धर्म का
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