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जीवन विज्ञान : सिद्धान्त और प्रयोग पक्षों-बौद्धिक और प्रयोगात्मक-की संयोजना करनी होगी। यही जीवन-विज्ञान की प्रणाली है। ज्ञान और आचार
भगवान् महावीर ने व्यक्तियों को चार भागों में बांटा है१. ज्ञान-संपन्न किन्तु शील-संपन्न नहीं। २. शील-संपन्न किंतु ज्ञान-संपन्न नहीं। ३. ज्ञान-संपन्न भी शील-संपन्न भी। ४. न ज्ञान-संपन्न और न शील-संपन्न।
इनमें तीसरा विकल्प समग्र व्यक्तित्व का बोधक है। शिक्षा का उद्देश्य है-ऐसी चेतना का विकास जिससे ज्ञान और आचार-दोनों को बल मिले। बौद्धिक पाठ्यक्रम से ज्ञान पढ़ाया जा सकता है, किन्तु उससे चरित्र का विकास नहीं हो सकता। चरित्र का विकास करना बुद्धि का काम नहीं है। यह दूसरी शक्ति का काम है। बुद्धि भी मस्तिष्क का कार्य है। चरित्र का विकास करना भी मस्तिष्क का कार्य है। पर इनके लिए सेन्टर भिन्न-भिन्न हैं। बुद्धि का सेन्टर है-रीजनिंग माइन्ड और चरित्र-विकास का सेन्टर है-इमोशनल माइन्ड। बुद्धि का काम है निर्णय करना, निश्चय करना। यह विवेक का क्षेत्र है। इमोशनल माइन्ड में संवेगों पर नियंत्रण करने के सेन्टर हैं। चरित्र-विकास के लिए नियंत्रण की क्षमता को बढ़ाना आवश्यक
जीवन विज्ञान : धर्म की परिभाषा
___मूल्य दो प्रकार के होते हैं-साध्यमूल्य और साधनमूल्य। नियन्त्रण साधन-मूल्य है। इसके द्वारा साध्य की दिशा में, समग्र व्यक्तित्व के विकास की दिशा में प्रगति की जा सकती है।
प्रश्न होता है कि धर्म क्या है ? सम्प्रदायों के आधार पर धर्म की अनेक परिभाषाएं की गई हैं। सम्प्रदाय-निरपेक्ष भाषा में धर्म की परिभाषा यह हो सकती है- अपने संवेगों पर नियन्त्रण की क्षमता का विकास ही धर्म है।
____ यह धर्म शिक्षा के साथ जुड़ता है तो किसी भी धर्म-सम्प्रदाय को कोई आपत्ति नहीं हो सकती। इसमें न साम्प्रदायिकता का प्रश्न है और न जातीयता और राष्ट्रीयता का प्रश्न है। यह निर्विशेषण धर्म है। इसका समावेश शिक्षा में होना अनिवार्य है। यदि यह शिक्षा के साथ जुड़ता है तो शिक्षा का आज जो लंगड़ापन है, वह मिट जाता है। अन्यथा ज्ञान बढ़ेगा पर चरित्र नहीं बढ़ सकेगा। समग्र
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