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जीवन विज्ञान : सिद्धान्त और प्रयोग
शिक्षा और भावात्मक परिवर्तन
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'कला कला के लिए'- इस पर कला के क्षेत्र में पर्याप्त चर्चाएं हुई हैं। शिक्षा के क्षेत्र में भी इस विषय पर चर्चा हुई है और होनी भी चाहिए। 'ज्ञान ज्ञान के लिए' है तो फिर पढ़ाई की परिसम्पन्ता विद्यालय में ही हो जाएगी। वहां से निकलने के बाद उसकी कोई उपयोगिता नहीं रहेगी । 'ज्ञान ज्ञान के लिए' ही नहीं, किन्तु परिवर्तन और विकास के लिए भी होना चाहिए। पहले जानना है । जानने के बाद फिर बदलना है, नया निर्माण करना है। यदि विकास और नव-निर्माण की प्रक्रिया ज्ञान के साथ जुड़ी हुई न हो तो ज्ञान बहुत सीमित रह जाएगा। नया निर्माण और विकास करने के लिए ज्ञान का क्षेत्र बहुत व्यापक हो जाता है।
जानो और करो। दोनों को कभी विभक्त नहीं किया जा सकता । ज्ञान और प्रयोग को अलग से नहीं देखा जा सकता। हमारी प्रक्रिया में ज्ञानात्मक प्रयोग और प्रयोगात्मक प्रयोग- दोनों जुड़े हुए हैं। दोनों को अलग देखने से हमारा दृष्टिकोण एकांगी बन जाएगा। हमें जगत् को जानना है और बदलना है। व्यक्ति बदले, समाज बदले- यह हमारा बहुउद्देशीय घोष है। ये दोनों ही बदलने चाहिए। बदलने की प्रक्रिया पर हम विचार करें।
१. दैहिक विकास
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जब शिशु तीन-चार वर्ष का होता है तब शिक्षा का सम्बन्ध जुड़ जाता है उसके विकास का भी क्रम है। वह पहले चलना सीखता है, बोलना सीखता है। उसमें शरीरिक प्रवृत्तियों का विकास होता है। वह खाना भी सीख लेता है। इसमें शिक्षा की आवश्यकता नहीं रहती । 'शिक्षा' शब्द भिन्न है। 'सीखना' शब्द भिन्न है । बच्चा मां से, भाई से, बहिन से सीखता है। यह शिक्षा का कार्य नहीं है। वह देखता है, अनुकरण करता है और सीखता जाता है। शिक्षा का विशेष अर्थ हो गया कि जहां संगठित एवं समन्वित रूप से सीखा जाता है, वह है शिक्षा । पर बच्चा पहले चरण में अनुकरण से सीखता है और शारीरिक प्रवृत्तियों का विकास करता है। । दूसरे चरण में वह इन्द्रियों का विकास करता है। वह इन्द्रियों का उपयोग करना जान लेता है।
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