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स्वतन्त्र व्यक्तित्व का निर्माण
बच्चा जन्म लेता है तब शिक्षित नहीं होता । जैसे-जैसे दिन बीतते हैं, वह शिक्षित होना शुरू हो जाता है। एक नवजात शिशु प्रकृति को नहीं जानता, वर्णमाला को नहीं जानता, बाह्य जगत् को नहीं जानता । दिन बीतने के साथ-साथ वह उन सबसे परिचित होता चला जाता है।
बच्चा वर्तमान में जीता है। न उसके सामने अतीत की स्मृति होती है और न भविष्य की कल्पना। अविकसित ज्ञान और वर्तमान में जीना । वह जैसे-जैसे सामाजिक संपर्कों में आता है, अतीत भी बनता है, स्मृतियां भी बनती जाती हैं और कल्पनाओं का निर्माण भी होता जाता है। बच्चा सीखता है वातावरण से, परिस्थिति से, सम्पर्क से और अध्यापक से । शिक्षा का उद्देश्य है-व्यक्तित्व का निर्माण, जो जन्मा है, उसका व्यक्तित्व विकसित हो ।
लौकिक शिक्षा का उद्देश्य है- व्यक्तित्व का निर्माण । व्यक्तित्व का निर्माण एक बात है और स्वतंत्र व्यक्तित्व का निर्माण दूसरी बात है। विवेक चेतना : स्वतंत्र व्यक्तित्व की पहचान
मनुष्य के भीतर इच्छाएं होती हैं, रुचियां होती हैं। इन्द्रियां मांग करती हैं। मांग पैदा होती है। बिना मांग के कोई काम होता नहीं। दुनिया की यह प्रकृति है कि मांग के बिना कुछ भी नहीं होता । मांग होती है तो कोई कार्य होता है। भूख की मांग है तो रोटी खाई जाती है। अगर मांग न हो तो कोई भी आदमी नहीं खाएगा। मांग के बाद सब कार्य होते हैं। रुचि की मांग और इच्छा की मांग-ये दो बहुत बड़ी मांगें हैं। इच्छा की तरंग पैदा होती है, आदमी काम में प्रवृत्त होता है। रुचि की मांग पैदा होती है, आदमी काम में लगता है इच्छा पैदा हुई, रुचि पैदा हुई और आदमी काम में लग जाए, वह व्यक्तित्व स्वतन्त्र व्यक्तित्व नहीं होता। इच्छा और रुचि की मांग को सदा स्वीकार करने वाला व्यक्तित्व स्वतन्त्र व्यक्तित्व नहीं हो सकता। स्वतन्त्र व्यक्तित्व वह होता है जो इन्द्रियों की मांग और इच्छा की मांग को भी अस्वीकार कर सके, यह विवेक कर सके, निर्णय कर सके-यह मांग स्वीकार्य है या नहीं। यदि यह मांग स्वीकार करने जैसी नहीं है तो ठुकरा दिया जाना चाहिए।
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