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जीवन विज्ञान : सिद्धान्त और प्रयोग मिलता है। शाम का स्रोत बाहर नहीं है। स्रोत भीतर में है। वह है प्राणशक्ति। यदि यह बात समझ में आ जाए कि शक्ति का स्रोत बाहर नहीं, भीतर है तो समस्या का समाधान हो सकता है। पर हमारी समझ में यह बात आई हुई है कि शक्ति का स्रोत बाहर में है, पानी, भोजन और दवा में है। भीतर भी देखें, बाहर भी देखें
जीवन-विज्ञान के द्वारा एक मौलिक परिवर्तन यह होता है कि हमारी दिशा बदल जाती है। दोनों में परिवर्तन आता है। जो शक्ति का स्रोत है, उसे स्रोत मानने लग जाते हैं और जो उस शक्ति का सहायक है उसे सहायक मानने लग जाते हैं। यही तो है हमारी सम्यग् दृष्टि, अन्तर्दृष्टि। यह अन्तर्दृष्टि जाग जाती है तो हम बाहर को भी देखते हैं और भीतर को भी देखते हैं। एक वह दृष्टि है जो केवल बाहर को देखती है और एक वह दृष्टि है जो बाहर को भी देखती है और भीतर को भी देखती है, दोनों को देखती है। केवल ऊपर देखें, काम नहीं बनेगा। केवल पीछे देखें, तो काम नहीं बनेगा। दाएं-बाएं देखें तो भी काम नहीं बनेगा, चारों ओर देख लें, पर जब तक नीचे-मूल की ओर नहीं देखेंगे तब तक काम नहीं हो सकेगा।
हमारी दृष्टि ऊपर की ओर जाती है, पीछे भी जाती है, पर जो मूल है, वहां नहीं पहुंच पाती। जब तक दृष्टि बाहर रहती है, केवल बाह्य में ही हमारी आस्था और विश्वास जमा रहता है, तब तक हमारे सामने प्रतिबिम्ब ज्यादा आते हैं, मूल का स्पर्श नहीं होता। जब दृष्टि अन्तर्मुखी बन जाती है फिर उसका प्रकाश चारों ओर फैलता है। जब प्रकाश फैलता है, सचाई हमारे सामने आ जाती है। अन्तर्दृष्टि को भी समर्थन दें। समर्थन के बिना अन्तर्दृष्टि का भी विकास नहीं होता। उसके लिए जरूरी है प्रयोग, पराक्रम। आज धर्म की जो सबसे बड़ी समस्या है, सत्य की खोज की जो सबसे बड़ी समस्या है वह है प्रयोगहीन धर्म। जो धर्म प्रयोगात्मक था, सिद्धांतात्मक कम और प्रयोगात्मक ज्यादा, वह धर्म आज केवल विचारात्मक और सिद्धांतात्मक रह गया। प्रयोगात्मकता छूट गई। अन्तर्दृष्टि के जागरण का परिणाम होगा प्रयोग की शक्ति का विकास, प्रयोगात्मक क्षमता का विकास। प्रयोग करें : प्रकाश करें
सत्य की यात्रा बहुत लम्बी है। लम्बा रास्ता पार करना होगा। यह न मानें-आज चले और आज ही सब कुछ उपलब्ध हो गया और यह भी न मानें-आज चले और आज कुछ भी नहीं मिला, जो जितना चला उसे उतना जरूर मिलेगा।
__छोटा-सा प्रकाश भी पूरे मार्ग को प्रकाशित कर सकता है। छोटा-सा प्रकाश
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