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__जीवन विज्ञान : सिद्धान्त और प्रयोग खाते हैं, आकांक्षा से खाते हैं। सत्य-शोधक की आकांक्षा समाप्त हो जाती है। आकांक्षा से खाने वाले को एक बड़ी मात्रा की जरूरत होती है। आकांक्षा को छोड़कर खाने वाले को बहुत थोड़ी मात्रा की जरूरत होती है। पोषण थोड़ी मात्रा से भी हो सकता है। हम जितना खाते हैं, पोषण के लिए नहीं खाते, किन्तु आदतवश खाते हैं। एक आदत बना लेते हैं और आदत को पूरा करने के लिए खाते
वैयक्तिक साधना के लोग संकरी पगडंडी पर चलते हैं, फिर वह चाहे वैज्ञानिक हो, चाहे अध्यात्म का साधक हो या ध्यान की आराधना करने वाला हो। ऐसा मार्ग कुछ लोग चुनते हैं। उतनी तितिक्षा, उतनी तपस्या हर व्यक्ति में नहीं होती कि उस मार्ग को चुने । सामान्य आदमी सामाजिक जीवन ही जीएगा। जीवन में जो कुछ है, वह करेगा।
ध्यान-साधना की एक पद्धति है वैयक्तिक और दूसरी है सामुदायिक। जीवन विज्ञान की पद्धति मुख्यत: सामाजिक पद्धति है, क्योंकि वह सामाजिक जीवन को प्रभावित करने वाली है। आस्था बदले
जीवन विज्ञान का दृष्टिकोण है-सबसे पहले आस्था बदले। ध्यान न करने वाले और ध्यान करने वाले व्यक्ति की आस्था में बहुत बड़ा अन्तर होता है। ध्यान सामुदायिक हो या वैयक्तिक, आखिर सत्य की खोज का मार्ग तो है ही। इसमें कोई सन्देह नहीं। सत्य के खोज की जिज्ञासा न जागे तो ध्यान की रुचि ही पैदा नहीं होगी। जब अज्ञात को ज्ञात करने की भावना जागती है, अपने भीतर क्या है, यह जानने की भावना जागती है, अपने भाग्य को जानने और उसे बदलने की जिज्ञासा भी पैदा होती है, तब कहीं मनुष्य ध्यान के मार्ग में प्रवृत्त होता है।
ध्यान करने वाले लोगों के सामने एक प्रश्नचिह्न है। उस प्रश्नचिह्न पर उन्हें गंभीरता से ध्यान को केन्द्रित करना है। यदि ध्यान के द्वारा कोई शक्ति नहीं जागी, जीवन की कोई रेखा नहीं बदली, पुरानी रेखा नहीं मिटी और नई रेखा नहीं खींची गई तो फिर लोग नहीं समझेंगे ध्यान का मूल्य । ध्यान करने वाला भी पूरा मूल्य नहीं समझ पाएगा।
प्रत्येक प्रवृत्ति की कसौटी समाज में होती है, मूल्यांकन समाज में होता है वैयक्तिक मूल्य नहीं होता, वैयक्तिक कसौटी नहीं होती। ध्यान के द्वारा कुछ बदलना चाहिए।
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