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जीवन विज्ञान : सिद्धान्त और प्रयोग बड़ी बात है कि न्यायाधीश के अपने संस्कार होते हैं, अपनी रुचियां होती हैं और अपने विचार होते हैं इतने प्रतिबंधों से प्रतिबद्ध आदमी से आशा की जाए कि वह स्वतन्त्र हो, निष्पक्ष हो, उसका निर्णय स्वतन्त्र हो, निष्पक्ष हो, क्या यह अपेक्षा रखना भी औचित्यपूर्ण बात होगी? कभी नहीं। जब तक आदमी प्रतिबंधनों से बंधा हुआ है तब तक संभव नहीं कि वह स्वतंत्र बन सके।
स्वतंत्र व्यक्ति के निर्माण की एक ही व्यवस्था हो सकती है और वह हैअध्यात्म शिक्षा का अनुशीलन, ध्यान का अभ्यास। जब अन्तर्दृष्टि जाग जाती है तब ये सारे प्रतिबंध अपने आप शिथिल हो जाते हैं।
आज विज्ञान के पूरे विकास के साथ, लौकिक विद्याओं के पूरे विकास के साथ, मनुष्य स्वतंत्र व्यक्तित्व के निर्माण की कल्पना कर रहा है। यह ठीक समय है वास्तव में स्वतन्त्र व्यक्तित्व के निर्माण के लिए अध्यात्म को जोड़ा जाए, ध्यान को साथ में जोड़ा जाए।
हम जैसे हैं उसी में संतुष्ट हैं या और कुछ होता है ? अगर कुछ बनना है तो कुछ करना भी है। प्रयत्न के बिना, पुरुषार्थ और पराक्रम के बिना परिवर्तन नहीं होता। एक परिवर्तन सहज होता है जो किसी संकल्प की, इच्छा की या प्रयत्न की अपेक्षा नहीं रखता, अपने आप होता है। उसके लिए न हम जिम्मेवार हैं और न कोई परिस्थिति जिम्मेवार है। पूरी जिम्मेवारी कालचक्र की होती है। समय के साथ सहजभाव से वह परिवर्तन और परिणमन होता रहता है। पदार्थ-जगत् का कोई पदार्थ, प्राणी-जगत् का कोई भी प्राणी ऐसा नहीं जो उस परिवर्तन से नहीं बदलता हो। प्रतिक्षण, प्रतिपल बदलाव होता रहता है। बदलाव का बिन्दु
___ दूसरा परिवर्तन हमारी संकल्पना के साथ होता है। हम संकल्पशक्ति का प्रयोग करते हैं, अपनी इच्छा शक्ति का प्रयोग करते हैं, बदलना चाहते हैं और बदल जाते हैं शायद आज तक के पूरे साधना के इतिहास में, मानव जाति के पूरे विकास-क्रम में ऐसा नहीं हुआ होगा कि प्राणी न बदलने की कामना की हो, और बदलना चाहा हो और न बदला हो। सचमुच जो बदलना चाहता है, वह जरूर बदल जाता है। हमारी चाह में कमी होती है, आस्था और निष्ठा में दुर्बलता होती है, जब हम नहीं बदलते। जो लोग बदलने का संकल्प करते हैं और फिर भी बदलते नहीं हैं तो मानना चाहिए- कहीं न कहीं कोई भूल है। हमारी भावना बदलने के बिंदु पर पहुंच जाए, और हम न बदलें, ऐसा कभी संभव नहीं है। पानी बर्फ बन
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