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शिक्षा की समस्याएं
३७ __ हमारे विद्यापीठ, शैक्षणिक संस्थान इस बात पर ध्यान दें या न दें किन्तु संघर्षमय सामाजिक जीवन जीने वाले प्रत्येक विद्यार्थी की यह दृष्टि निर्मित होनी चाहिए, उसे ऐसा सोचना चाहिए कि विद्यापीठ में जो कुछ मैंने सीखा है, वह अधूरा है। जब तक मैं जीवन विज्ञान की शिक्षा नहीं पा लूंगा तब तक सुख-चैन से नहीं जी सकूँगा।
एक दिन कुछ स्त्रियां और कुछ पुरुष सत्संग करने आए। वे सब सम्पन्न घरों से थे। उनके पास साधनों की कोई कमी नहीं थी। फिर भी वे सब दुःखी थे, मानसिक उलझनों से पीड़ित थे। दिन-रात बेचैन रहते। नींद भी पूरी नहीं आती, सब दुःखी। प्रश्न उठा- क्या वही बात नहीं हो रही है- जो मूल है वह तो लुप्त हो रहा है और साधनों का अंबार लगाया जा रहा है? जिसके लिये ये साधन हैं, वह स्वयं पीड़ित है, दु:खी है, फिर ये साधन किसके काम आएंगे? इनसे थोड़ी मानसिक तुष्टि अवश्य मिलती होगी पर वेदना इतनी प्रबल होती है कि वह मानसिक तुष्टि को लील जाती है।
इन सारे सन्दर्भो का फलित यह है कि प्रत्येक व्यक्ति के लिए जीवन विज्ञान की शिक्षा अनिवार्य है। जो व्यक्ति स्वतंत्र है, जिसमें निर्णय करने की क्षमता है, वह अपने हित-अहित को जानता-समझता है। वह यह भी जानता है कि मैं अपने भाग्य का निर्माता हूं। मैं भाग्य की संरचना कर सकता हूं। मेरी स्वतन्त्र सत्ता है। मेरा स्वतन्त्र अस्तित्व है। मेरा पुरुषार्थ और पराक्रम भाग्य की खींची हुई लकीरों को मिटा सकता है और नई लकीरें खींच सकता है।
जब हमारे में इतनी सामर्थ्य है तो हम कैसे उपेक्षा कर सकते हैं? प्रत्येक व्यक्ति यह सोचे कि विद्यापीठ में हम पचास प्रतिशत शिक्षा पाते हैं और पचास प्रतिशत शिक्षा हमें अध्यात्म के क्षेत्र में आत्मानुशासन की प्राप्त करनी है। यथार्थ में निन्यानवे प्रतिशत शिक्षा आत्मानुशासन को विकसित करने की होनी चाहिए और एक प्रतिशत शिक्षा बुद्धि को तीक्ष्ण करने के लिए होनी चाहिए। इसका अनुपात ही निन्यानवे प्रतिशत और एक प्रतिशत। मूल्य शिक्षा और आत्मानुशासन का
श्रीमज्जयाचार्य ने लिखा-'जिसका स्वभाव और प्रकृति अच्छी होती है, जो आत्मानुशासी होता है, जो अपने आवेगों, आवेशों, वासनाओं और कामनाओं पर नियन्त्रण कर सकता है, जो अपनी आकांक्षाओं का प्रतिरोध कर सकता है, उन पर अनुशासन कर सकता है पर पढ़ा-लिखा नहीं है तो उस व्यक्ति की
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