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जीवन विज्ञान : सिद्धान्त और प्रयोग घी को रत्न माना है। घी एक रत्न है, पर आज की भाषा दूसरी है-घी अनावश्यक है। यह निश्चित है कि घी भी शस्त्र बनता है, तेल भी शस्त्र है। पूरे चिकने पदार्थ शस्त्र बन जाते हैं।
यह सचाई है कि अकाल-मृत्यु में किसी तलवार, बन्दूक या तोप का हाथ नहीं होता, किन्तु नमक, चीनी, घी या ज्यादा गरिष्ठ मिठाइयों का हाथ होता है। आदमी सौ वर्ष जीना चाहता है या सौ वर्ष जीता है, यदि इनका प्रयोग खूब करेगा तो संभव है पचास वर्ष भी न जिए। वे शस्त्र तो हैं ही, मारते भी हैं पर मारते इतने मिठास के साथ कि पता ही नहीं चलता। मारने-मारने में भी अन्तर है। एक मारता है कड़वाहट के साथ और एक मारता है मिठास के साथ, मधुरता और प्रियता के साथ। प्रत्येक पदार्थ दुनिया में शस्त्र बना हुआ है, अशस्त्र कुछ भी नहीं है। शस्त्र : अध्यात्म की भाषा में
लोगों में शस्त्र की एक प्रकार की अवधारणा है। दूसरे प्रकार की एक गहरी अवधारणा है अध्यात्म की। हमारा शरीर, वाणी और मन-ये दुष्प्रयुक्त होते हैं तो शस्त्र हैं। दुष्प्रयुक्त मन एक शस्त्र है, दुष्प्रयुक्त वाणी एक शस्त्र है
और दुष्प्रयुक्त शरीर एक शस्त्र है। दूसरा शस्त्र है-भाव। पूरा भाव-तंत्र एक शस्त्र है। तीसरी बात है अविरति। आकांक्षा एक शस्त्र है।
शस्त्र दो श्रेणियों में बंट जाते हैं-पदार्थ-शस्त्र और मनुष्य की अंतर् वृत्तियों का शस्त्र। शरीर भी शस्त्र है, वाणी और मन भी शस्त्र हैं। जितनी लड़ाइयां बंदूकों, तलवारों और तोपों से नहीं लड़ी जातीं, उतनी लड़ाइयां हमारे मन, वचन और शरीर से लड़ी जाती हैं। कौन व्यक्ति ऐसा होगा, जो दिन में एक-दो लड़ाई नहीं लड़ लेता हो? स्वयं लड़ लेते हैं और कई लोग तो लड़ाई को उधार भी पसंद करते हैं। जहां भी पता चले लड़ाई की संभावना है शायद तीसरे गांव भी वे पहुंचे जाते हैं।
कौन नहीं लड़ता? एक अंगुली का इशारा होता है, लड़ाई शुरू हो जाती है। जबान ऐसी निकलती है, लड़ाई शुरू हो जाती है। मन में चिंतन ऐसा आता है, लड़ाई शुरू हो जाती है। राग और द्वेष से भरा हुआ मन का चिंतन सबसे बड़ा शस्त्र है।
वाणी, शरीर और मन का दुष्प्रयोग सारी लड़ाइयों को पैदा करता है। क्या हम यह सोचते हैं कि जो महायुद्ध होते हैं, वे बहुत बड़े कारणों से होते
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