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जीवन विज्ञान : सिद्धान्त और प्रयोग आत्महत्या कर लेता है तब आश्चर्य होता है। शिक्षा से उसे क्या मिला? क्या शिक्षा से वह इतना भी अनुशासन नहीं सीख सका कि अनुकूल-प्रतिकूल स्थिति में अपना संतुलन रख सके ? इससे यही निष्कर्ष निकलता है कि आज की शिक्षा का उद्देश्य केवल बौद्धिक प्रश्नों को उभार देना है और उनको बौद्धिक समाधान दे देना मात्र है। सारी शिक्षा इसी सीमा में चल रही है। दो विद्वान मिलते हैं, दो पण्डित मिलते हैं और आपस में विवाद शुरू हो जाता है, लड़ाई प्रारम्भ हो जाती है। इस स्थिति में चरित्र और आचार का आधार क्या होगा ?
हम अपेक्षा करते हैं कि आज की शिक्षा से अच्छी पीढ़ी का निर्माण हो, अच्छा समाज बने, बुराइयां कम हों। शिक्षा - शास्त्री और अभिभावक भी यही चाहते हैं कि बच्चे सुसंस्कारित बनें, अच्छे बनें, अच्छे नागरिक बनें किन्तु उन सबकी यह चाह या धारणा सफल नहीं होती क्योंकि जो मार्ग चुना है, वह सही नहीं है।
सहिष्णुता का विकास
एक बहुत बड़ी शक्ति है - सहिष्णुता । सहिष्णुता का विकास तब होता है जब सुविधा और सहारे की बात नहीं सोची जाती। जो कष्ट सहते हैं, कठिनाइयां झेलते हैं, वे सहिष्णुता का विकास कर लेते हैं।
जो पौधे प्रारम्भ में तूफान के प्रहारों को सह लेते हैं, वे मजबूत हो जाते हैं, वे कभी उखड़ते नहीं। जो पौधे बांध दिए जाते हैं, वे उस तूफान से तो बच जाते हैं, पर जीवन भर कमजोर रह जाते हैं। प्रतिपल उनके उखड़ने की आशंका बनी ही रहती है। जो दूसरों के सहारे जीता है, वह कमजोर रह जाता
है।
जीवन - विज्ञान की शिक्षा का एक परिणाम है- सहिष्णुता का विकास । यह विद्याशाखीय शिक्षा के द्वारा कभी उपलब्ध नहीं हो सकता। विद्या की जितनी शाखाएं हैं उन सबको पढ़ लो, किन्तु सहिष्णुता की शक्ति नहीं जाग पाएगी, समता का विकास नहीं हो पाएगा। विद्या की एक शाखा - जीवन - विज्ञान, एक ऐसा माध्यम बन सकती है, जो आदमी की आन्तरिक शक्तियों को जगाकर उसके व्यक्तित्व को सर्वांग सुन्दर बना सकती है । जीवन विज्ञान के मूल्यांकन और प्रयोग की अनिवार्यता को स्वीकारा जाए तो सहिष्णुता और मनोबल की समस्या समाहित हो सकती है।
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